गोपाल सिंह नेपाली (1911 - 1963) हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे। गोपालसिंह नेपाली का जन्म चम्पारन जिले के बेतिया नामक स्थान पर 11 अगस्त 1911 को कालीबाग दरबार के नेपाली महल में हुआ था। इन्होंने प्रवेशिका तक शिक्षा प्राप्त की थी|उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह था| कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और फिल्मों के गीत लिखे। कविता क्षेत्र में नेपाली ने देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम तथा मानवीय भावनाओं का सुंदर चित्रण किया है। वे मंचों के हिट कवि थे। उन्हें "गीतों का राजकुमार" कहा जाता था।1932 में उन्होंने 'प्रभात' और 'मुरली' नाम से क्रमशः हिन्दी और अंग्रेज़ी में हस्तलिखित पत्रिकाएँ भी निकालीं।
उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं-
उमंग (1933), पंछी (1934), रागिनी (1935), पंचमी (1942), नवीन (1944), नीलिमा (1945), हिमालय ने पुकारा (1963)
उन्होंने फ़िल्मों में लगभग 400 धार्मिक गीत लिखे।
उन्होने बम्बइया हिन्दी फिल्मों के लिये गाने भी लिखे। वे एक पत्रकार भी थे जिन्होने "रतलाम टाइम्स", चित्रपट, सुधा, एवं योगी नामक चार पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। सन् 1962 के चीनी आक्रमन के समय उन्होने कई देशभक्तिपूर्ण गीत एवं कविताएं लिखीं जिनमें 'सावन', 'कल्पना', 'नीलिमा', 'नवीन कल्पना करो' आदि बहुत प्रसिद्ध हैं।
1963 में मात्र 52 वर्ष की उम्र में भागलपुर रेलवे स्टेशन पर उनका देहांत हुआ।
नेपाली जी बहु-आयामी थे.
निर्माता-निर्देशक के तौर पर नेपाली जी ने तीन फीचर फिल्मों - नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया था.
जिन फिल्मों के लिए उन्होंने गाने लिखे वो हैं - ‘नाग पंचमी’, ‘नवरात्रि’, ‘नई राहें’, ‘जय भवानी’, ‘गजरे’, ‘नरसी भगत’
नरसी भगत में ही नेपाली जी ने "दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी हैं" जैसा बेहतरीन भजन लिखा था, जो हम आज भी गाते हैं.
आपकी जिन कविताओं ने लोकप्रियता की ऊँचाइयों को छुआ उनमें कुछ का जिक्र इस आलेख में करने की चेष्टा की गई है| स्कूल के पाठ्यपुस्तक में सबने बड़े चाव से यह कविता पढ़ी है|
यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल, कितना निर्मल
हिमगिरि के हिम से निकल निकल,
यह निर्मल दूध सा हिम का जल,
कर-कर निनाद कल-कल छल-छल,
तन का चंचल मन का विह्वल
यह लघु सरिता का बहता जल
ऊँचे शिखरों से उतर-उतर,
गिर-गिर, गिरि की चट्टानों पर,
कंकड़-कंकड़ पैदल चलकर,
दिन भर, रजनी भर, जीवन भर,
धोता वसुधा का अन्तस्तल
यह लघु सरिता का बहता जल
हिम के पत्थर वो पिघल पिघल,
बन गए धरा का वारि विमल,
सुख पाता जिससे पथिक विकलच
पी-पी कर अंजलि भर मृदुजल,
नित जलकर भी कितना शीतल
यह लघु सरिता का बहता जल
कितना कोमल, कितना वत्सल,
रे जननी का वह अन्तस्तल,
जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल,
गंगा, यमुना, सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल
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एक बेटी के मनोभाव को उकेर कर कवि ने अपनी उत्कृष्ट सृजनशीलता का का परिचय दिया है|यह भावपूर्ण रचना पढ़कर किस माता पिता की आँखें नम न हो जाएँ|
बाबुल तुम बगिया के तरुवर, हम तरुवर की चिड़ियाँ रे
दाना चुगते उड़ जाएँ हम, पिया मिलन की घड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें, ज्यों मोती की लडियां रे
बाबुल तुम बगिया के तरुवर …….
आँखों से आँसू निकले तो पीछे तके नहीं मुड़के
घर की कन्या बन का पंछी, फिरें न डाली से उड़के
बाजी हारी हुई त्रिया की
जनम -जनम सौगात पिया की
बाबुल तुम गूंगे नैना, हम आँसू की फुलझड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आएँ ज्यों मोती की लडियाँ रे
हमको सुध न जनम के पहले , अपनी कहाँ अटारी थी
आँख खुली तो नभ के नीचे , हम थे गोद तुम्हारी थी
ऐसा था वह रैन -बसेरा
जहाँ सांझ भी लगे सवेरा
बाबुल तुम गिरिराज हिमालय , हम झरनों की कड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
छितराए नौ लाख सितारे , तेरी नभ की छाया में
मंदिर -मूरत , तीरथ देखे , हमने तेरी काया में
दुःख में भी हमने सुख देखा
तुमने बस कन्या मुख देखा
बाबुल तुम कुलवंश कमल हो , हम कोमल पंखुड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
बचपन के भोलेपन पर जब , छिटके रंग जवानी के
प्यास प्रीति की जागी तो हम , मीन बने बिन पानी के
जनम -जनम के प्यासे नैना
चाहे नहीं कुंवारे रहना
बाबुल ढूंढ फिरो तुम हमको , हम ढूंढें बावरिया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
चढ़ती उमर बढ़ी तो कुल -मर्यादा से जा टकराई
पगड़ी गिरने के दर से , दुनिया जा डोली ले आई
मन रोया , गूंजी शहनाई
नयन बहे , चुनरी पहनाई
पहनाई चुनरी सुहाग की , या डाली हथकड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
मंत्र पढ़े सौ सदी पुराने , रीत निभाई प्रीत नहीं
तन का सौदा कर के भी तो , पाया मन का मीत नहीं
गात फूल सा , कांटे पग में
जग के लिए जिए हम जग में
बाबुल तुम पगड़ी समाज के , हम पथ की कंकरियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
मांग रची आंसू के ऊपर , घूंघट गीली आँखों पर
ब्याह नाम से यह लीला ज़ाहिर करवाई लाखों पर
नेह लगा तो नैहर छूटा , पिया मिले बिछुड़ी सखियाँ
प्यार बताकर पीर मिली तो नीर बनीं फूटी अंखियाँ
हुई चलाकर चाल पुरानी
नयी जवानी पानी पानी
चली मनाने चिर वसंत में , ज्यों सावन की झाड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
देखा जो ससुराल पहुंचकर , तो दुनिया ही न्यारी थी
फूलों सा था देश हरा , पर कांटो की फुलवारी थी
कहने को सारे अपने थे
पर दिन दुपहर के सपने थे
मिली नाम पर कोमलता के , केवल नरम कांकरिया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
वेद-शास्त्र थे लिखे पुरुष के , मुश्किल था बचकर जाना
हारा दांव बचा लेने को , पति को परमेश्वर जाना
दुल्हन बनकर दिया जलाया
दासी बन घर बार चलाया
माँ बनकर ममता बांटी तो , महल बनी झोंपड़िया रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
मन की सेज सुला प्रियतम को , दीप नयन का मंद किया
छुड़ा जगत से अपने को , सिंदूर बिंदु में बंद किया
जंजीरों में बाँधा तन को
त्याग -राग से साधा मन को
पंछी के उड़ जाने पर ही , खोली नयन किवाड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
जनम लिया तो जले पिता -माँ , यौवन खिला ननद -भाभी
ब्याह रचा तो जला मोहल्ला , पुत्र हुआ तो बंध्या भी
जले ह्रदय के अन्दर नारी
उस पर बाहर दुनिया सारी
मर जाने पर भी मरघट में , जल - जल उठी लकड़ियाँ रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
जनम -जनम जग के नखरे पर , सज -धजकर जाएँ वारी
फिर भी समझे गए रात -दिन हम ताड़न के अधिकारी
पहले गए पिया जो हमसे अधम बने हम यहाँ अधम से
पहले ही हम चल बसें , तो फिर जग बाटें रेवड़ियां रे
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
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स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नारी शक्ति का आह्वान करते हुए उनकी यह कविता बहुत ओजपूर्ण है|
भाई बहन
तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ,
तू बन जा हहराती गँगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ,
आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ लाल बनूँ,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ,
यहाँ न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला,
...तू आँगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला ।
बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं, तू ममता की गोद बनी,
मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी,
मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी,
भाई की गति, मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी
यह अपराध कलंक सुशीले, सारे फूल जला देना ।
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना ।
भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा है,
संगम है, गँगा उमड़ी है, डूबा कूल-किनारा है,
यह उन्माद, बहन को अपना भाई एक सहारा है,
यह अलमस्ती, एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है,
पागल घडी, बहन-भाई है, वह आज़ाद तराना है ।
मुसीबतों से, बलिदानों से, पत्थर को समझाना है ।
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'धर्मयुग के 10 जून 1956 के अंक में प्रकाशित
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ
तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ
मै खुली क़लम का जादूगर, तू बंद क़िताब कहानी की
मैं हँसी-ख़ुशी का सौदागर, तू रात हसीन जवानी की
तू श्याम नयन से देखे तो, मैं नील गगन में उड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।
तू मन के भाव मिलाती है, मेरी कविता के भावों से
मैं अपने भाव मिलाता हूँ, तेरी पलकों की छाँवों से
तू मेरी बात पकड़ती है, मैं तेरा मौन पकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।
तू पृष्ठ-पृष्ठ से खेल रही, मैं पृष्ठों से आगे-आगे
तू व्यर्थ अर्थ में उलझ रही, मेरी चुप्पी उत्तर माँगे
तू ढाल बनाती पुस्तक को, मैं अपने मन से लड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।
तू छंदों के द्वारा जाने, मेरी उमंग के रंग-ढंग
मैं तेरी आँखों से देखूँ, अपने भविष्य का रूप-रंग
तू मन-मन मुझे बुलाती है, मैं नयना-नयना मुड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।
मेरी कविता के दर्पण में, जो कुछ है तेरी परछाईं
कोने में मेरा नाम छपा, तू सारी पुस्तक में छाई
देवता समझती तू मुझको, मैं तेरे पैयां पड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।
तेरी बातों की रिमझिम से, कानों में मिसरी घुलती है
मेरी तो पुस्तक बंद हुई, अब तेरी पुस्तक खुलती है
तू मेरे जीवन में आई, मैं जग से आज बिछड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।
मेरे जीवन में फूल-फूल, तेरे मन में कलियाँ-कलियाँ
रेशमी शरम में सिमट चलीं, रंगीन रात की रंगरलियाँ
चंदा डूबे, सूरज डूबे, प्राणों से प्यार जकड़ता हूँ
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ ।
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बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन सी रातों को, नौलाख सितारों ने लूटा
दो दिन के रैन-बसेरे में, हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो जलता रहता है, पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाई, तस्वीर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा
जुगनू से तारे बड़े लगे, तारों से सुंदर चाँद लगा
धरती पर जो देखा प्यारे, चल रहे चाँद हर नज़र बचा
उड़ रही हवा के साथ नज़र, दर-से-दर, खिड़की से खिड़की
प्यारे मन को रंग बदल-बदल, रंगीन इशारों ने लूटा
हर शाम गगन में चिपका दी, तारों के अधरों की पाती
किसने लिख दी, किसको लिख दी, देखी तो, कही नहीं जाती
कहते तो हैं ये किस्मत है, धरती पर रहने वालों की
पर मेरी किस्मत को तो, इन ठंडे अंगारों ने लूटा
जग में दो ही जने मिले, इनमें रूपयों का नाता है
जाती है किस्मत बैठ जहाँ, खोटा सिक्का चल जाता है
संगीत छिड़ा है सिक्कों का, फिर मीठी नींद नसीब कहाँ
नींदें तो लूटीं रूपयों ने, सपना झंकारों ने लूटा
वन में रोने वाला पक्षी, घर लौट शाम को आता है
जग से जानेवाला पक्षी, घर लौट नहीं पर पाता है
ससुराल चली जब डोली तो, बारात दुआरे तक आई
नैहर को लौटी डोली तो, बेदर्द कहारों ने लूटा
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घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है ।
शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रतादिया,
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया हुआ प्राण के समान है!
यह अतीत कल्पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भवना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है!
तीन चार फूल है, आस पास धूल है,
बाँस है, फूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्य प्राणदान है!
झूम झूम बदलियाँ, चुम चुम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रही, हलचले मचा रही!
लड़ रहा स्वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीत हार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है!
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ये रहे कवि नेपाली जी के कुछ गीत जो उन्होंने फिल्मों के लिए लिखे थे|
चलचित्र-नागपंचमी
गायक-मुहम्मद रफी, आशा भोसले
संगीतकार-चित्रगुप्त
गीतकार-गोपालसिंह नेपाली
कलाकार-निरूपा राय,बी एम व्यास, दुर्गा खोटे, मनहर देसाई
वर्ष- 1953, 1950s
चलचित्र-नवरात्रि
गायक-मुहम्मद रफी, आशा भोसले
संगीतकार-चित्रगुप्त
गीतकार-गोपालसिंह नेपाली
कलाकार-निरूपा राय,ललिता पवार, दुर्गा खोटे, मनहर देसाई, कुमकुम
वर्ष- 1955, 1950s
चलचित्र-नई राहें
गायक-मुहम्मद रफी
संगीतकार-रवि
गीतकार-गोपालसिंह नेपाली
कलाकार-अशोक कुमार, गीता बाली
वर्ष- 1959
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रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही
एक ही तो प्रश्न है रोटियों की पीर का
पर उसे भी आसरा आँसुओं के नीर का
राज है ग़रीब का ताज दानवीर का
तख़्त भी पलट गया कामना गई नहीं
रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही
चूम कर जिन्हें सदा क्राँतियाँ गुज़र गईं
गोद में लिये जिन्हें आँधियाँ बिखर गईं
पूछता ग़रीब वह रोटियाँ किधर गई
देश भी तो बँट गया वेदना बँटी नहीं
रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही
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एक रुबाई
अफ़सोस नहीं इसका हमको, जीवन में हम कुछ कर न सके,
झोलियाँ किसी की भर न सके, सन्ताप किसी का हर न सके,
अपने प्रति सच्चा रहने का, जीवन भर हमने काम किया,
देखा-देखी हम जी न सके, देखा-देखी हम मर न सके ।
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सन्दर्भ-कविता कोश, इंटरनेट,विकिपीडिया