शुक्रवार, 15 मई 2015

धरा संपदा (गीत)



धरा संपदा (गीत)
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आज ब्रम्हांड है देख रहा 
अपनी ही तस्वीर
उमड़ घुमड़ कर आए बादल
गगन है बे-नजीर
वसुधा के आँचल में बिखरी
हरियाली अनमोल
यही बसे हैं प्राण हमारे
मनुज समझ ले मोल
नहीं रौंद तू अपनी धरती
बना न इसे हकीर
सुखदायी है पवन झकोरे
झूमे डाली पात
ले कुल्हाड़ी क्यूँ जाता है
करने को आघात
नहीं यहाँ कुछ तेरा मेरा
बनना नहीं अधीर
पर्वत के अंतस से फूटी
पावन गंगा धार
गंदला जो करने चला तू
भव कैसे हो पार
ये है अनुपम धरा संपदा
समझो इसकी पीर
रक्षा कर लें हम जो इसकी
बन जाए जागीर
*ऋता शेखर 'मधु'*

मंगलवार, 12 मई 2015

प्रमाणिका छंद



प्रमाणिका छंद--
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नदी चली तरंग में, हवा बही उमंग में
बहार ही बहार है, उड़ी हुई पतंग में

बसंत राग गा रहा, खिले हुए गुलाब में
उदास पारिजात भी, हँसे हसीन ख्वाब में

समीर गंध से भरा, शिरीष फूलने लगे
पलाश की सुवास है, बुरांश झूमने लगे

उजास चाँदनी खिली, सजा ललाट व्योम का
सँवारती रही ऋचा, विराट रूप भोम का

निराश भाव त्याग दो, करो न बात ठेस की
बढ़े चलो बढ़े चलो, सुनो पुकार देश की

बुलंद हौसले रहें, उड़ान जानदार हो
हजार शूल बीन लो, इनाम शानदार हो

*ऋता शेखर 'मधु'*