धरा संपदा (गीत)
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आज ब्रम्हांड है देख रहा
अपनी ही तस्वीर
उमड़ घुमड़ कर आए बादल
गगन है बे-नजीर
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आज ब्रम्हांड है देख रहा
अपनी ही तस्वीर
उमड़ घुमड़ कर आए बादल
गगन है बे-नजीर
वसुधा के आँचल में बिखरी
हरियाली अनमोल
यही बसे हैं प्राण हमारे
मनुज समझ ले मोल
हरियाली अनमोल
यही बसे हैं प्राण हमारे
मनुज समझ ले मोल
नहीं रौंद तू अपनी धरती
बना न इसे हकीर
बना न इसे हकीर
सुखदायी है पवन झकोरे
झूमे डाली पात
ले कुल्हाड़ी क्यूँ जाता है
करने को आघात
झूमे डाली पात
ले कुल्हाड़ी क्यूँ जाता है
करने को आघात
नहीं यहाँ कुछ तेरा मेरा
बनना नहीं अधीर
बनना नहीं अधीर
पर्वत के अंतस से फूटी
पावन गंगा धार
गंदला जो करने चला तू
भव कैसे हो पार
पावन गंगा धार
गंदला जो करने चला तू
भव कैसे हो पार
ये है अनुपम धरा संपदा
समझो इसकी पीर
रक्षा कर लें हम जो इसकी
बन जाए जागीर
समझो इसकी पीर
रक्षा कर लें हम जो इसकी
बन जाए जागीर
*ऋता शेखर 'मधु'*