अरण्य हमारी वसुन्धरा की प्राकृतिक संपदा हैं जो नमी समेटती
है और हमारी धरती को हरा-भरा रखती है| इस अरण्य में बहुत प्रकार के पेड़-पौधे
,लुभावने जीव-जंतु होते हैं तो जाहिर है यहाँ विचरण करना बहुत सुखद अहसास देता
है| ऐसा ही एक अरण्य काव्य-जगत में बनाया है आ० रश्मिप्रभा दी ने और उसे
बड़े ही प्यारे और लुभावने शब्दों से सजाया है...शब्दों के अरण्य में सभी कवि और
कवयित्रियों को पढ़ना बहुत सुखद अनुभूति कराता है| मेरी छोटी सी कोशिश है कि मैं
रश्मिप्रभा जी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘’शब्दों के अरण्य में’’ का परिचय दे
सकूँ| मुझे खुशी है कि रश्मि दी ने मेरी कविता को भी शामिल किया है|
पुस्तक का नाम- शब्दों के अरण्य में
सम्पादन- रश्मिप्रभा
आवरण चित्र- अपराजिता कल्याणी
कला-निर्देशन- विजेन्द्र एस विज
मूल्य- 200/-
प्रकाशक- हिन्द-युग्म
१, जिया सराय, हौज खास
नई दिल्ली-110016
इस पुस्तक को शुभकामना संदेश के जरिए अपने अनमोल शब्द दिए
हैं संगीता स्वरूप जी एवं साधना वैद्य जी ने|
पुस्तक हमारे हाथों में है इसके लिए शैलेश भारतवासी जी
का आभार !!
अब परिचय कवि और कविताओं का---
१)अंजू अनन्या जी—
शिवरात्रि के रोज
पत्तों और फलों से
विरक्त कर दिया गया
बेल का पेड़
एक स्पर्श के बाद
पत्तों फलों की
जगह थी
कचरे का डिब्बा
२)अनुलता राज नायर जी
अपमानऔर वेदना के
बियाबान में
भटकता, ठोकरें खाता
सच्चे का स्वाभिमान
जल जल कर
निरंतर प्रकाश उत्सर्जित करता है
३) अपर्णा मनोज जी
महावर में डूबकर
मैं मीरा बनी थी
और तेरे युग को खींच लाई थी
पुनश्च
विष का रंग
क्या तेरे वर्ण-सा है कान्हा
४)अमरेन्द्र’अमर’ जी
मेरी किताब के वो रुपहले पन्ने
जो अनछुए ही रह गए
वो नहीं बदले
न बदली उनकी तासीर
बदला तो केवल मेरा नजरिया
‘’मेरी किताब के वो रुपहले पन्ने’’
५) अमित आनन्द पाण्डेय जी
लव-कुश का आक्रोश-
तुम भले ही प्रकाशपु़ज हो
लेकिन
राम! याद रखो
हम
तुम्हारी ही
तली के अंधेरे हैं
तुम्हारे बेहद अपने|
६)अमित उपमन्यु जी
जीते जी इंसान कई जगह होने की कोशिश करता है
मौत के बाद वह सबके सपनों में आता है
इंसान मरकर ईश्वर हो जाता है
७) अवंती सिंह जी
अब मैं कविताओं के प्रकार बदलने बदलने लगी हूँ
आकार बदलने लगी हूँ, व्यवहार बदलने लगी हूँ
८) अश्वनी कुमार जी
प्रेमिका सी कविता
कई दिन के बाद मिलो तो
बात नहीं करती आसानी से
अनमनी सी रहती है
रूठी
९) ऋता शेखर ‘मधु’
श्मशानी निस्तब्धता छाई है
उभरी दर्द भरी चहचहाहट
नन्हे-नन्हे परिंदों की
शायद उजड़ गया था उनका बसेरा
मनुष्य ने पेड़ जो काट दिए थे
१०) कविता रावत जी
बेवजह गिरगिट भी नहीं रंग बदलता
यूँ ही अचानक कहीं कुछ नहीं घटता
११) कैलाश शर्मा जी
दूर दीपक देख कर
आस फिर से जग गई
आस की धूमिल किरण
तिमिर ढाँकते रहे
१२) गार्गी चौरसिया जी
वो रिश्ता
उस जिस्मानी रिश्ते से
कहीं अधिक सगा होता है
जो अनुभूति से बनता है
१३) गार्गी मिश्रा जी
कल रात
खिड़की के बाहर देखा था
स्ट्रीट लाइट के नीचे
एक जुगनू कुछ सोच रहा था
१४) गीता पंडित जी
ओ मृतप्राय पल!
मेरी बूढ़ी होती हुई
इन अस्थियों को
अगर दे सकते हो तो दो
वो आस्था/ वो विश्वास/ वो जिह्वाएँ
जिनसे उड़ सकूँ
पहले जैसे
१५) डॉ जय प्रकाश तिवारी जी
बादल तो फिर भी प्रायश्चित करते हैं
लेकिन इंसान भूल गया है करना
आत्मग्लानि और पश्चाताप
आखिर क्यों? कब ? और कैसे?
१६) डॉ कौशलेन्द्र मिश्र जी
नीम की ऊँची फुनगी पर
टाँग दिया है मैंने
अपना मोबाइल फोन
मैं खुश हूँ
आजाद जो हो गया हूँ
पहले उस नाचाज-सी चीज ने
जीना हराम कर रखा था मेरा
१७) डॉ जेन्नी शबनम जी
गैरों के दर्द को महसूस करना और बात है
दर्द को खुद जीना और बात
एक बार तुम भी जी लो
मेरी जिन्दगी
जी चाहता है
तुम्हें श्राप दे ही दूँ
‘’जा तुझे इश्क हो ”
१८) डॉ निधि टंडन जी
प्यार में, कभी कोई खाली नहीं होता
प्यार हमेशा व्यस्त रहने का नाम है
१९) डॉ प्रीत अरोड़ा जी
मन कहता उसका
बगावत करने को
तभी
गूँजने लगती कानों में माँ की शिक्षा
और संस्कार देने लगते दुहाई
आखिर
जीत जाते संस्कार और हार जाती वो
२०) डॉ मोनिका शर्मा जी
बड़ा विशाल हृदय है हमारा
कभी रीति-रिवाज,कभी दान दहेज
अनगिनत कारण हैं हमारे पास
बेटियों को कूड़ा समझ लेने के
और इतनी ही दलीलें भी
तभी तो सभी कुछ स्वीकार लेता है
हमारा निर्दयी हृदय
२१) डॉ रमा द्विवेदी जी
जीवन जब भी जटिल कठिन लगे
शून्य में खो जाओ
शून्य से फिर आरंभ करो
जीवन को नई ऊर्जा
नई स्फूर्ति का अहसास
शून्य को अंकों में बदल देता है
२२) डॉ विजय कुमार श्रोत्रिय जी
जब जब मैंने उड़ने का प्रयास किया
धरती ने मुझे खींचा है
अपनी ओर
झाड़ियों से युद्ध करने में
रिसा लहू
क्योंकि एक दिशा न थी
काश! तुम समझ सकते
मेरे पंखों से रिसते लहू की पीड़ा
२३) दिगम्बर नासवा जी
गुजरते लम्हों की अपनी गति होती है
दिन-महीने-साल भी
अपनी गति से गुजरते जाते हैं
पर उम्र का हर नया पड़ाव
पीछे की ओर धकेलता है
ये सच है कि
एक सा तो हमेशा कुछ भी नहीं रहता
पर कुछ न कुछ होने का ये एहसास
शायद कभी खत्म भी नहीं होता
२४) दीपिका रानी जी
पति से बिछुड़ी औरत
उसे दिखाया नहीं गया
कोई और रास्ता
उसके घर में
बाहर की ओर खुलने वाला दरवाजा
बंद हो गया है
ढक गए हैं रोशनदान-खिड़कियाँ
परंपरा के मोटे परदों से
२५) निखिल आनंद गिरि
जिस कागज की कतरन मेरे पास पड़ी है
उसपर जो इक नज़्म है आधी
उसमें बस इतना ही लिखा है
“काश! कागज के इस पुल पर
हम-तुम मिलते रोज शाम को...
बिना हिचक के,
बिना किसी बंदिश के साथी”
२६) नित्यानंद गायेन जी
दूर नदी के उस पार
जो आखिरी वृक्ष खड़ा है
गिन रहा है
अपने जीवन के बचे दिन
२७) पल्लवी त्रिवेदी जी
बचपन भले ही चला जाए
बचपना कहाँ जाता है
और शायद यही तो है
जो इंसान की मासूमियत
खोने से बचाता है|
२८)प्रत्यक्षा जी
मेरे अंदर भी
उग आया है
एक पूरा जंगल
ऐसे वृक्षों का
सोख रहा है जो
धूप का हर एक कतरा
२९)बाबुषा कोहली जी
कठोरता की प्रतियोगिता में
वह मोची निरीह दिखता है
जिसने किसी पशु का चमड़ा काटकर
मेरे जूते सिले हैं
३०) मार्कण्डेय राय जी
गँवई गाँव के लोग कितने भले लगते थे
सीधा सपाट जीवन, कहीं मिलावट नहीं
गाय की दही न सही, मट्ठे से ही काम चलाना
मटर की छीमी को गोहरे की आग में पकान्
सब कुछ याद है
३१) मीनाक्षी धन्वन्तरी जी
सामने से उसे आते देख मैं समझ गई
इन आँखों का पढ़ना मुश्किल है
पढ़ लिया तो फिर समझना मुश्किल है
समझ लिया तो फिर भूलना मुश्किल है|
३२) मीनाक्षी स्वामी जी
पीछे छूटती जाती हैं सदियाँ
और रेल के भीतर बैठी स्त्री के सपने
वैसे ही बक्से में बंद रहते हैं
जैसे उसने
सहेज कर
रखे थे कभी |
३३) मुकेश कुमार सिन्हा जी
हाथ की ये लकीरें
छपी होती हैं
मकड़े के जालों जैसी
हथेली पर
जिसमें रेखाएँ
होती हैं अहं
जिनके मायने
होते हैं, हर बार
अलग-अलग
इन जालों की तरह
उकेरी हुई लकीरों को
१पने वश में
करने हेतु
हम करते हैं धारण
लाल, हरे, पीले
चमकदार
मँहगे- सस्ते पत्थर
३४) रश्मिप्रभा जी
मैंने देखा है रब को करवटें बदलते
मेरी हर करवट पर वह साथ रहा है
शारीरिक पीड़ा हो या मानसिक द्वंद
रब ने सब जीया है
फूँक-फूक कर रखे कदमों के नीचे
वह रखता रहा है अपनी हथेलियाँ
काँटे वही चुभे हैं
जो उसकी हथेलियों को चीर गए
३५) रश्मि रविजा जी
खिड़की के बाहर उदास शाम
फैलकर पसर गई है
मुस्कुराकर नाटक करने की जरूरत नहीं आज
जी भर कर जी लूँ, अपनी उदासी को
कब मिलता है जिन्दगी में ऐसा मौका
अपने मन को जिया जा सके
मनमुताबिक !
३६) राजीव चतुर्वेदी जी
कविता शब्दों में ढला अक्स है आहट का
कविता-चिंगारी सी
अंगारों का आगाज किया करती है
कविता सरिता में दीप बहाते गीतों- सी
कविता कोलाहल में शांत पड़े संगीतों- सी
कविता हाँफते शब्दों की कुछ साँसें हैं
३७) राजेन्द्र तेला ‘निरंतर’जी
रात
नींद को बुलाता रहा
करवटें बदलता रहा
पर नींद मानो
रूठ कर बैठ गई
मैंने उससे
नाराजगी का कारण पूछा
तो कहने लगी
तुम मुझे
ढंग से बुलाते कहाँ हो
मुझे बुलाना हो तो
विचारों का मंथन त्याग कर
शांत मन और मस्तिष्क से
बुलाओ
३८) लावण्या दीपक शाह जी
स्वर झंकार कर मेरे मन
हों निनादित दिशाएँ
गा उठे पाषाण भी
कलकलित स्वर से बह चले
झरने की धार भी
३९) लीना मल्होत्रा राव जी
हर बार
तुम
इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हो राम
तुम्हारा यह स्वार्थ
तुम्हारे पुरुष होने का परिणाम है
या
मेरे स्त्री होने का दंड?
४०) वंदना गुप्ता जी
ढूँढ रहे हो तुम मुझे शब्दकोशों में
निकाल रहे हो मेरे विभिन्न अर्थ
कर रहे हो मुझे मुझसे विभक्त
बना रहे हो मेरे नए उपनिषद
कर रहे हो मेरी नयी-नयी व्याख्याएँ
मगर फिर भी नहीं पकड़ पाते हो पूरा सच
४१) वंदना शुक्ला जी
और वक्त अचानक पलट कर देखने लगता
धरती का वो आखिरी पेड़
जिसके झुरमुट में अटकी है कोई
खुशी से लथपथ फटी चिथड़ी स्मृति
किसी सूखे पत्ते की ओट में
हवा के डर से
थकी सहमी और उदास सी
४२) वाणी शर्मा जी
मिचमिचाए अधमुंदी पलकों में
सपनीले मोती जगमगाए
मेरी सूनी गोद भर आई
जब यह नन्ही कली मुस्काई
मैं अकिंचन, हुई वसुंधरा
अब कोई सपना अपना नहीं
थमा उसे सपनों की पोटली
निश्चिंत हुई
मैं पूर्ण हुई
सम्पूर्ण हुई|
४३) विजय कुमार सप्पत्ति जी
माँ को मुझे कभी तलाशना नहीं पड़ा
वो हमेशा ही मेरे पास थी और है अब भी
आहिस्ता-आहिस्ता इस तलाश की सच्ची आँ-मिचोली
किसी और झूठी तलाश में भटक गई
मैं माँ की गोद से दूर होते गया
४४) विभा रानी श्रीवास्तव जी
मुद्दा ये नहीं
कि मैं अपने जख्मों को कुरेद रही हूँ
जखाम हैं तो कभी बहेंगे ही
कभी हल्की चोट पर उभर ही आएँगे
प्रश्न ये है कि जख्म बने क्यूँ
४५) शिखा वार्षणेय जी
रात के साए में कुछ पल
मन के किसी कोने में झिलमिलाते हैं
सुबह होते ही वे पल
कहीं खो जाते हैं
४६) शेफाली गुप्ता जी
आज यूँ ही एक खयाल
गुजरा मेरे रास्ते से
शायद क्योंकि
तुम मेरे साथ नहीं आज
४७) संगीता स्वरूप जी
जिन्दगी की राह में
शूल भी हैं, फूल भी
किस-किस का त्याग करूँ
और किसे वरण करूँ?
४८) संतोष कुमार “सिद्धार्थ जी”
बिछुड़ गए वो
जो अभी मिले थे
संग चले थे
चार कदम जीवन में
पर क्यों
ह्सकर न शरीक हुए
मिलने पर आत्मा परमात्मा के
४९) संध्या शर्मा जी
मेरे बचपन की साथिन
ये नन्ही-सी चिड़िया
मुझसे बातें करती
मेरे संग गाती
इनका साथ मुझे खूब भाता
पिछले जन्म का कुछ तो था नाता
५०) सतीश सक्सेना जी
हम जी न सकेंगे दुनिया में
माँ जन्मे कोख तुम्हारी से
जो दूध पिलाया बचपन में
यह शक्ति उसी से पायी है
जबसे तेरा आँचल छूटा, हम हँसना अम्मा भूल गए
हम अब भी आँसू भरे, तुझे टकटकी लगाए बैठे हैं|
५१) समीर लाल जी
उम्र के इस पड़ाव पर आ
निकलता हूँ जिस शाम
खिड़की के उस किनारे से
आसमान में आता
चाँद...
पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटने के वक्त
उसके आने का सबब
५२) सरस दरबारी जी
शाम खिसककर जब रात के पास आती है
एक अकेलेपन का एहसास लिए आती है
फिर वही छत, वही दीवारें, वही घड़ी पे नजर
बस इस तरह से उम्र बीतती जाती है
५३) सलिल वर्मा जी
दिसंबर की ठिठुरती ठंढ में
दिल्ली के जनपथ पर
मुझे याद आ गए कविवर निराला
जब दिखा ‘भिक्षुक’ मुझे इक
खुद में गठरी की तरह सिमटा हुआ...
५४) साधना वैद जी
जीजी, राम की
भौतिक और भावनात्मक
आवश्यकताओं के लिएतो
उनकी संगिनी सीता तो उनके साथ थीं
लेकिन मेरे लक्ष्मण और उर्मिला ने तो
चौदह वर्ष का यह वनवास
नितांत अकेले शरशैय्या
की चुभन के साथ भोगा है
५५) सीमा सिंघल जी
बचपन से विनम्रता का पाठ पढ़कर
बड़ों का सम्मान हृदय में पोषित कर
वह खुद के लिए
हेय दृष्टि कैसे सहन करती
और क्रूर हो जाती अपनी आत्मा के प्रति
बस कर लिया बँटवारा
अब उसके पास जवाब तो है
सिर्फ अपने लिए
क्योंकि जिन्दगी का कोई सवाल नहीं था उससे|
५६) सुनीता शानू जी
कभी-कभी आत्मा के गर्भ में
रह जाते हैं कुछ अंश
दुखदायी अतीत के
जो उम्र के साथ-साथ
फलते-फूलते लिपटे रहते हैं
अमर बेल की मानिंद
५७) सुशीला शिवराण जी
काली विभत्स रात गुजर गई
दे एक नई भोर
और छोड़ गई सवाल
जो हैं आज तक अनुत्तरित
क्यों नहीं पुण्य कमाते पति
कर पत्नी के शव पर निज दाह
क्या है कोई जवाब
बोल मेरे पुरुष-प्रधान समाज?
५८) सोनिया बहुखंडी गौड़ जी
मेरे जीवन की यादें
प्रायः अर्धरात्रि में उठती हैं
तो पीड़ा प्रभंजन की भाँति
नैनों में प्रवेश कर जाती हैं
जब समस्त जग निद्रा में लीन होता है
मैं यादों के आलिंगन में बंदी बनी रहती हूँ
५९) स्वाति भालोटिया जी
पाँच हजार मील की दूरी पर
जब “वो” सोच कर मुझको
गाता है इक गीत गर्म-सा
सर्द रूह का जवाँ आँचल
लहकता है जुनून बन कर
६०) हरकीरत हीर जी
आज मैं
मुहब्बत की अदालत में
खड़ी होकर तुम्हे
दर्द के सहारे
उस रिश्ते से मुक्त करती हूँ
जो बरसों तक
हम दोनों के बीच
मजबूरी की चुन्नी ओढ़े
खामोश सिसकता रहा..
प्रस्तुति...ऋता शेखर 'मधु'