शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

ठोस रिश्ता-लघुकथा

ठोस रिश्ता

“अब मैं रिया के साथ नहीं रह सकता| उसका रोज रोज देर से घर आना मुझे पसंद नहीं| नौकरी करने का मतलब यह नही कि घर को वह नेग्लेक्ट करे|”

“नहीं बेटा, ऐसा मत सोचो| रिया एक समझदार लड़की है| वह काम के प्रति वफादार है| जब हमने नौकरी वाली बहु लाई है तो हमें उसकी मजबूरी भी समझनी चाहिए| | एक तो उसे नौकरी का तनाव है , उसपर तुम्हारा यह रुख कहीं सब कुछ बिखरा न दे| इसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता है, ”माँ ने बेटे अंशुल को समझाना चाहा|

“मगर माँ, अब मुझसे बिल्कुल बरदाश्त नहीं होता| रिश्तों में कड़वाहट आने लगे तो अलग हो जाना ही अच्छा है| मैं तलाक की अर्जी देने जा रहा हूँ|”

“तो ऐसा करो,तलाक का एक कागज मेरे लिए भी ले आना| मैं भी तुम्हारे पापा से तंग आ चुकी हूँ| उनका हर समय घर से बाहर रहना मेरे भी बरदाश्त से बाहर है| सारी गृहस्थी का बोझ मैं अकेले ही क्यों उठाऊँ|”

अंशुल के जाते हुए कदम थम गए| वह सीधे अपने कमरे में गया और पनी दो साल की बिटिया को प्यार करने लगा|

---ऋता शेखर ‘मधु’ 

सोमवार, 26 सितंबर 2016

हम भारत की बेटियाँ, देंगे अरि को मात

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वीरों को नमन...

हँसते हँसते देश पर, जो होते कुर्बान
भारत को आज भी, उनपर है अभिमान

शोकाकुल सरिता थमी, थमे पवन के पाँव
गम में डूबा है नगर, ठिठक रही है छाँव

लोहित होता है गगन, सिसक रहे हैं प्राण
इधर बजी है शोक धुन, उधर मचलते बाण

होती है खामोश जब, चूड़ी की झनकार
विधवा सूनी माथ पर, लिखती है ललकार

सिर से साया उठ गया, छूट गया है साथ
आज सलामी दे रहे, नन्हे नन्हे हाथ

लिखें शहीद समर सफर, परिणीता के नाम
पग पग पर हैं ठोकरें, लेना खुद को थाम

वीर पिता की राख से, कहतीं मन की बात
हम भारत की बेटियाँ, देंगे अरि को मात

आततायियों से कहो, कब तक रहें विनीत
भरना है हुँकार अब, निभा युद्ध की रीत
--ऋता शेखर 'मधु'

रविवार, 25 सितंबर 2016

लघुकथा- चिपको

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लघुकथा- चिपको

नन्हें अतुल का घर बहुत बड़ा था| उस घर में उसके पापा- मम्मी, दादा- दादी और चाचा रहते थे| बड़े घर का आँगन भी बहुत बड़ा था|

“क्यों न आँगन वाली जमीन में दो कमरे बना दें और किराए पर दे दें| बेकार ही वहाँ इतनी सारी जमीन पड़ी है,”दादा जी ने सबके सामने यह प्रस्ताव रखा|

“मगर दादा जी, वहाँ जो अमरूद का पेड़ है उसका क्या करेंगे,” छठी कक्षा में पढ़ने वाले अतुल ने जिज्ञासा प्रकट की|

“ उसे कटवा देंगे और क्या” अतुल के पापा ने कहा|

“लेकिन पापा, पेड़ नहीं काटना चाहिए| पेड़ हमारे पर्यावरण को शुद्ध रखते हैं|”

“बड़ा आया पाठ पढ़ाने वाला, काम है तो पेड़ काटना ही पड़ेगा| तुम अभी बच्चे हो, बाहर जाकर खेलो और हमें अपना काम करने दो,”चाचा ने अतुल को डाँट दिया|

“जाकर पेड़ काटने के लिए एक मजदूर को बुलाकर ले आओ,” दादा जी ने बेटे को कहा|
“जी” कहकर अतुल के चाचा बाहर चले गए|

अतुल कमरे में बैठकर सोचने लगा| अचानक क्लास में पढ़ाई गई गौरा देवी की कहानी उसे याद आ गई| वन में पेड़ों की कटाई रोकने के लिए गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाएँ पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो जाती थीं| उनका कहना था कि पहले उन्हें काटा जाए फिर पेड़ को काटें|चिपको आन्दोलन के बाद सरकार ने पेडों की कटाई पर रोक लगा दी थी|
आँगन में हलचल बढ़ चुकी थी| पेड़ काटने के लिए शायद मजदूर आ चुका था| अतुल बाहर निकला और अमरूद के पेड़ से चिपक कर खड़ा हो गया|

“ अरे, यह क्या कर रहे हो अतुल| हटो वहाँ से, पेड़ काटने दो,” समवेत स्वर में पापा, दादा और चाचा ने कहा|
“नहीं, पेड़ काटने वाले अंकल को बोलिए पहले मुझपर कुल्हाड़ी चलाएँ,”अतुल ने अडिग स्वर में कहा|

सब खामोश खड़े थे| अतुल की मम्मी जो दूर खड़ी थीं, ने समर्थन में अतुल को अँगूठा दिखाया|

“पेड़ के दो फीट दूर से नींव की जमीन खोदो”, अचानक दादा जी ने मजदूर को आदेश दिया|

--ऋता शेखर ‘मधु’

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

विमाता-लघुकथा

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विमाता
करीब एक साल पहले माँ न बनने की शर्त पर तीन सयाने बच्चों की माँ बन कर रेवा इस घर में आई थी| बच्चे सगी माँ का स्थान किसी अन्य को देने को तैयार न थे| बच्चों ने एक दूरी बना रखी थी जिसे रेवा पार नहीं कर पाती| रेवा बड़े जतन से रोज सवेरे बच्चों के इस्तरी किए कपड़े, सबकी पसंद का नाश्ता, लंच पैक, रात का दूध सब कुछ पूरा करने का हर संभव प्रयास करती, जो एक माँ करती है| रात का खाना सब इकट्ठे खाते| बच्चे पिता की बातों का जवाब देते किन्तु रेवा कुछ बोलती तो चुप्पी मार जाते| रेवा का दिल आहत हो जाता|
बारिश में भीग जाने की वजह से आज रेवा का बदन बुरी तरह से टूट रहा था| पति ऑफिस जा चुके थे| वह पलंग पर लेटी कराह रही थी| अचानक रेवा को माथे पर शीतल स्पर्श का अनुभव हुआ| रेवा ने आँखें खोलीं| मोहित ने झट से हाथ हटाया और बाहर चला गया| रेवा ने पूर्ववत आँखें बन्द कर लीं|
“माँ,” एक आवाज आई| रेवा के कान यह शब्द सुनने को अभ्यस्त न थे| उसने भ्रम समझ कर आँखें न खोलीं|
“माँ, दवा खा लीजिए| आपको तेज बुखार है|”
अब शक की गुंजाइश न थी| रेवा ने आँखें खोलीं| मोहित ने दवा और पानी का ग्लास आगे बढ़ाया| दवा खाते हुए रेवा के आँसुओं को मोहित ने दिल से महसूस किया| दवा खाकर वह सो गई |
नींद में ही उसने महसूस किया कि कोई धीरे धीरे उसके पैर दबा रहा है| रेवा ने आखें खोलीं तो जया थी|
“माँ, रात का खाना मैं बनाऊँगी,” बगल में खड़ी नेहा ने रेवा का हाथ पकड़ कर कहा|
तब तक रेवा के पति आ गए|
“मैं अभी डॉक्टर को फोन करता हूँ| रमिया को भी बुला लेता हूँ, खाना बना देगी”
“ नहीं जी, जिस माँ के बच्चे इतने प्यारे और केयरिंग हों उसे किसी की जरूरत नहीं|” लाड भरे स्वर में रेवा ने कहा और जो खिलखिलाहट गूँजी उसे द्विगुणित करने में घर की दीवारों ने कमी न की|
--मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित
---ऋता शेखर ‘मधु’

गुरुवार, 15 सितंबर 2016

हर भूले को राह दिखाना बनकर दीपक बाती--ललित छंद

सार/ललित छंद-- 16-12
१.
टिक टिक करती घड़ियाँ बोलीं, साथ समय के चलना
सोने से सो जाते अवसर, मिलता कोई हल ना
नींद देश की सुखद छाँव में, बतियाते हैं सपने
श्रम का सूरज साथ चले तो, हो जाते हैं अपने
२.
अँधियारी रातों में पथ पर, दीपक एक जलाएँ
बन जाए दीपों की माला, ऐसी अलख जगाएँ
हरसिंगार झरे मन आँगन, नभ में बिखरे तारे
चमक रहे बागों में जुगनू, तम दीपक से हारे
३.
दुख के सीले गलियारे से, सुख की गठरी छाँटो
राहों में जो फूल खिले हैं, हँसकर उनको बाँटो
जगत के छल से वह बेखबर,  चुगती रहती दाने
नन्ही सी बुलबुल आँगन में, आती गाना गाने
४.
साँझ ढले पुस्तक पढ़ पढ़ कर, मुनिया राग सुनाती
हर भूले को राह दिखाना, बनकर दीपक बाती
माँ की चुनरी सिर पर डाले, छमछम करती आती
तुतले तुतले बोल बोलकर, बिटिया नाच दिखाती
५.
पावस के पावन मौसम में, जमकर बरसी बूँदें
सूँघ रही माटी की खुश्बू, धरती आँखें मूँदे
वृक्ष विहीन सृष्टि से सुन लो, उसकी करुण कहानी
नीर पेड़ की बरबादी से, छाएगी वीरानी
--ऋता शेखर 'मधु'

शनिवार, 10 सितंबर 2016

बेपेंदी का लोटा-लघुकथा

बेपेंदी का लोटा


“वेतनमान के लिए जबरदस्त रैली है| हम सभी कर्मचारियों को उसमें अवश्य भाग लेना चाहिए|”मुकेश वर्मा ने जोशीले स्वर में कार्यालय में सभी कर्मचारियों का आह्वान किया|

“बिल्कुल भाग लेना चाहिए| किन्तु हमलोग काम पर आ चुके हैं और रजिस्टर में उपस्थिति भी दर्ज कर चुके हैं| ऐसे में हमें अपने पदाधिकारी से पूछकर जाना चाहिए| यदि न जाने दें तो सामूहिक अवकाश ठीक रहेगा| हम अवश्य जाएँगे| हमारे अधिकारों का सवाल है,”दिनकर बाबू ने भी ओजपूर्ण शब्दों में हामी भरी|

सभी पन्द्रह कर्मचारी अपने पदाधिकारी के पास पहुँचे और जाने की इजाजत माँगी|
‘नहीं, मैं जाने की इजाजत नहीं दे सकता| जब जाना ही था तो पहले से अवकाश लेना चाहिए था| अब जाने पर मैं कार्यवाई करूँगा,” पदाधिकारी ने कहा|

“सच कहते हैं सर, जब उपस्थिति बन चुकी है तो जाने देना उचित नहीं| आप नियमानुसार ही काम करें,” दिनकर बाबू की यह बदली बदली भाषा देखकर सभी एक दूसरे का मुँह देखने लगे|

जाते जाते सबने सुना,” पेंदी को जाँचे बिना विरोध...हहहहहह”

--ऋता शेखर ‘मधु’

सोमवार, 5 सितंबर 2016

युग का दास - लघुकथा

युग का दास 


“ये लीजिए जजमान सामान की लिस्ट| प्राणी की अत्मा को तभी शान्ति मिलेगी जब ये सारी वस्तुएँ दान करेंगे| दान की गई सारी वस्तुएँ सीधे स्वर्ग जाएँगी जहाँ आपके पिता इनका उपयोग करेंगे,” पंडित जी ने हरीश बाबू को लिस्ट थमाया|

पलंग , टीवी, कूलर, रसोई के ब्रांडेड बर्तन , पूरे साल भर का अनाज, स्वर्ण के विष्णु-लक्ष्मी की प्रतिमा और भी बहुत कुछ था लिस्ट में|
“तब तो इन्हें ले जाने के लिए ट्रक की व्यवस्था भी करनी होगी|”

“आप जजमान लोग गंभीर बातों को नहीं समझते| युगों से चली आ रही परम्परा को कोई नहीं बदल सकता|” पंडित जी ने कहा|

कैंसर की असाध्य बीमारी से जूझ रहे पिता के इलाज में ही लाखों रुपये खर्च हो चुके थे| अब तक ऋणों के बोझ से दबे हरीश बाबू सोच में डूबे थे|

माँ सबकुछ देख सुन रही थीं| उन्होंने पंडित जी से कहा, “पंडित जी, मेरे श्रवण कुमार पुत्र द्वारा मुझे जो भी सुख सुविधाएँ दी जाएँगी वह सीधे स्वर्ग में उसके पिता के पास पहुँचेंगी क्योंकि मैं उनकी अर्धांगिनी हूँ| आप सिर्फ श्राद्धकर्म करवाएँ , आपको यथोचित पारिश्रमिक मिल जाएगा| युगों से चली आ रही परम्परा बदलना भी हमारा ही काम है|”

“नालायक जजमान,” बुदबुदाते हुए पंडित जी निकल गए|


--ऋता शेखर ‘मधु’