शनिवार, 31 अगस्त 2019

सोरठे

सोरठे

स्वप्न हुए साकार, जब कर्म की राह चले।
गंगा आईं द्वार, उनको भागीरथ मिले ।।1

नारी का शृंगार, बिन्दी पायल चूड़ियाँ।
पहन स्वप्न का हार, नभ मुठ्ठी में भर चलीं।।2

नन्हें नन्हें ख़्वाब, नन्हों के मन में खिले।
बोझिल हुए किताब, ज्यों ज्यों वे वजनी हुए।।3

लिए हाथ में हाथ, पथिक चले चुपचाप दो।
मिला बड़ों का साथ, स्वप्न सभी पूरे हुए।।4

धूप छाँव का सार, शनै शनै मिलता गया।
सपनों का संसार, मन बगिया में जा बसा।।5

सपनों में अवरोध, पैदा जब कर दे जगत।
हटा हृदय से क्रोध, चले चलो निज राह पर।6

पाना हो सुख चैन, समय प्रबंधन कीजिये।
शयन काल है रैन, दिन में व्यर्थ न लीजिये।।7

लिख लिख प्रभु के गीत, हर्षित होती लेखनी।
कर कान्हा से प्रीत, अक्षर अक्षर जी उठे।।8

धन दौलत को जोड़, जाने क्या सुख पा रहे।
जाना है तन छोड़, याद इसे रखना पथिक।।9

झुके झुके से नैन, जाने कितना कुछ कहे।
झूठ करे बेचैन, या प्रीत के गीत गहे।।10

परम् सत्य है सत्व, जीवन जीने के लिए।
उन्हें मिले देवत्व, करुण भाव में जो बहे।।11
--ऋता शेखर' मधु'

शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

धुँधली आँख-लघुकथा

धुँधली आँख

चारो तरफ ॐ कृष्णाय नमः की भक्तिमय धूम मची हुई थी। देवलोक में बैठे कृष्ण इस कोशिश में लगे थे कि किसी की पुकार अनसुनी न रह जाये। कृष्ण के बगल में बैठे सुदामा मंद मंद मुस्कुरा रहे थे।
" रहस्यमयी मुस्कान तो हमारे अधरों पर विराजमान रहती है मित्र, आज आपने क्यों यह मुस्कान धारण किया है?"
"कुछ नहीं मित्र, आज मेरा मन हो रहा कि मैं भी धरती पर जाऊँ और आपकी महिमा देखूँ।"


" तो देर किस बात की प्रिय सुदामा, चलिये"

धरती पर पहुँचकर कृष्ण , कृष्ण ही बने रहे किन्तु सुदामा ने खुद का अवतरण इस प्रकार किया कि वे जहाँ जायें, उस घर के मालिक के दोस्त के रूप में दिखें।

धरती शंखध्वनि से गुंजायमान थी। दीपकों ने अपनी लौ स्थिर रखा था क्योंकि दीये में घी प्रचूर मात्रा में था।कृष्ण के बालरूप की सज्जा का तो कहना ही क्या था।कृष्ण-राधा का भी अद्भुत श्रृंगार था। कृष्ण के भोग की जितनी गिनती की जाए वह कम ही होनी थी।

कृष्ण सुदामा एक घर के सामने रुक गए। कृष्ण को भी मसखरी सूझी। उन्होंने बालक का रूप धारण कर लिया।

"कोई है, कोई है" सुदामा ने आवाज लगाई।

अन्दर से गृहस्वामी निकले जिनकी रईसी उनकी साजसज्जा बता रही थी।

"क्या है, क्यों आवाज लगा रहे हो। कान्हा की आरती का समय हो गया है भाई, अभी वापस जाओ।"

"मेरा बच्चा कई दिनों से भूखा है, कुछ खाने को दीजिये।" खुले दरवाजे से माखन, दही की हांडी देखते हुए सुदामा ने कहा।

"अभी क्या दूँ, सब कुछ भोग में चढ़ा हुआ है"

"मित्र, मैं राघव हूँ, मैं तो तुम्हें देखते ही पहचान लिया था।मैं चाहता था कि तुम मुझे स्वयं पहचानो। अभी मेरी माली हालत ठीक नहीं, बच्चा भूखा है।" सुदामा ने विनीत भाव से कहा।

गृहस्वामी की आंखों में क्षण भर की पहचान उभरी।
" पर मैं नहीं पहचान पा रहा। क्या मेरे वैभव से आकर्षित होकर आए हो।"

"नहीं,धरती पर शोर मचा है कि कृष्ण भाव के भूखे हैं। हम अपनी वही भूख मिटाने आये थे।" कृष्ण सुदामा ने असली रूप धारण कर गृहस्वामी को अचंभित कर दिया।

"मित्र कृष्ण, जो भी आपके नाम की टेर लगा रहे उनमें कितनों ने आपके सद्गुणों को अपनाया है, बस यही दिखाना था। जो जीते जागते बाल गोपाल को धुँधली आँखों से देख रहे वे आपका अनुकरण कैसे कर पाएँगे।"

रहस्यमयी मुस्कान अब भी सुदामा के अधरों पर थिरक रही थी।

--ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

अपनी अपनी नौकरी-लघुकथा



अपनी अपनी नौकरी

सरकार की ओर से जमींदारी प्रथा खत्म हो चुकी थी।फिर भी लोकेश बाबू जमींदार साहब ही कहलाते थे।उनके सात बेटे शहर में रहकर पढ़ाई करते और लोकेश बाबू मीलों तक फैले खेत की देखरेख और व्यवस्था में लगे रहते। धीरे धीरे सातों बेटे ने उच्च शिक्षा प्राप्त की और पदाधिकारी बनते गए। लोकेश बाबू को यह चिंता सताने लगी कि गाँव के जमीन जायदाद की देखभाल कौन करेगा। सब शहर में रहकर नौकरी करना चाहते थे।एक बार उन्होंने यही बात सभी बेटों के सामने रखी।उनमें एक बेटा गाँव में रहकर देखभाल के लिए तैयार हो गया। जब वे जीवित थे तो सभी बेटों को पैदावार का कुछ हिस्सा भेज दिया करते थे। जमींदार साहब को गए पाँच वर्ष बीत चुके थे।अब किसी को कुछ भी नहीं भेजा जाता था।

आज अचानक छोटे भाई उमेश को देख गाँव वाले भाई सोमेश को बहुत खुशी हुई। दोनों भाई देर तक हरियाली भरे खेतों में घूमते रहे। घूमते घूमते उमेश ने दिल की बात बता ही दी।
"भैया, पिताजी के जाने के बाद हमलोगों को खेत का कुछ भी नहीं मिल रहा। लगता ही नहीं कि हम खेतिहर परिवार से हैं।"
"देखो बाबू, जैसे तुमलोग शहर में रहकर नौकरी करते हो तो मैं तो तुम्हारी नौकरी के पैसे से कुछ नहीं माँगता। खेती ही मेरी नौकरी है और पैदावार मेरी तनख्वाह। यदि तुम्हे पैदावार में हिस्सा चाहिए तो अभी इन बैलों को हल में जोतकर दिखा" । यह कहते हुए सोमेश ठठाकर हँस पड़ा।
"पिता जी की इच्छा का मान रखते हुए मैंने गाँव और खेती स्वीकार किया और तुमलोगों ने शहर और नौकरी। खेत की जमीन जब चाहे ले लेना। फिर उस पैदावार पर तुम्हारा हक होगा भाई मेरे"
उमेश मुस्कुरा दिया क्योंकि यही जवाब उसे शहर लौटकर बड़े भाइयों को देना था।
-अप्रकाशित
ऋता शेखर मधु

रविवार, 25 अगस्त 2019

छंद-सोरठा

सोरठा

हर पूजन के बाद, जलता है पावन हवन।
खुशबू से आबाद,खुशी बाँटता है पवन।।1

प्रातःकाल की वायु , ऊर्जा भर देती नई।
बढ़ जाती है आयु, मिट जाती है व्याधियाँ।।2

छाता जब जब मेह, श्यामवर्ण होता गगन।
भरकर अनगिन नेह, पवन उसे लेकर चला।।3

शीतल मंद समीर, तन को लगता है भला।
बढ़ी कौन सी पीर, विरहन के मन ही रही।।4

खत में लिखकर प्रेम,छोड़ गया खिड़की खुली।
सही नहीं है ब्लेम, उसे उड़ा ले जब हवा।।5

झूम उठी है डाल, हवा सहेली थी मिली।
देखो हुआ धमाल, पत्ते कुछ उड़ने लगे।।6

सुप्त हुई जब आग, छुपी हुई थी राख में।
सुना हवा का राग, धधक पड़ी वह जागकर।।7


पढ़े वेद जो चार, ज्ञानी माने यह जगत।
जिनमें भाव अपार, ईश उन्हें जाने भगत।8


जब बोते हैं फूल, खिलने से खुशबू खिले।
रोप रहे जो शूल, कैसे दिल से दिल मिले।।9

कर लालच का कर्म, अंतर्मन क्योंकर छले।
छोड़ नीति का धर्म, कहो मनु किस राह चले।10

पैसा हो या राम,जगत में दो भाव बड़े।
एक करे निष्काम,एक दिखावा में पड़े।।11
@ ऋता शेखर 'मधु'