13.
चाकी पर घट ढालता, कारीगर कुम्हार,
माटी जल में भीगती, लेती है आकार|
लेती है आकार, आँच में फिर तप जाती,
प्यारी सी सौंधास, नीर में भर कर लाती|
बचपन ऐसे पाल, बसे अंतस में खाकी,
परमारथ हो काज, करे जैसे ये चाकी|
12.
मानव को वरदान में, मिले बोल अनमोल,
हृदय तुला में तोलकर, मन की परतें खोल|
मन की परतें खोल, भाव भी रखना निश्छल,
शीतलता के साथ, चाँदनी भाती हरपल|
कुछ निर्मम अपशब्द, बना देते हैं दानव,
मर्यादा हो साथ, वही कहलाते मानव|
11.
महकी है फिर वाटिका, पाकर कुसुम कनेर,
जागो भी गृहलक्ष्मी , अब नहिं करो अबेर|
अब नहिं करो अबेर, सुरभि शिव पर बिखराओ,
गाकर मंगल गान, पुष्प स्वर्णिम लिपटाओ|
आराधन के बाद, खुशी घर भर में चहकी,
पाकर कुसुम कनेर , वाटिका फिर से महकी|
10.
छाया को तुम काटकर, ढूँढ रहे अब छाँव,
पगडंडी को पाटने , आज चले हो गाँव |
आज चले हो गाँव, लिए कुल्हाड़ी आरी,
क्या काटोगे पेड़, नष्ट कर दोगे क्यारी ?
बना ताप संताप, विकल जीवों की काया,
रूठ रही है वृष्टि, सिमटती जाती छाया|
9.
चहकी घर की डाल पर, आँगन था गुलजार,
चहकी घर की डाल पर, आँगन था गुलजार,
चूँ चूँ करके माँगती, दाना बारम्बार|
दाना बारम्बार, छींट के हम बिखराते,
गौरैया का झुंड, देख के फिर इतराते|
बँटवारे की आग, हृदय में उनके दहकी,
काट गए वो डाल, सहम पाखी नहिं चहकी
8.
धन दौलत केे मोह में, अपना आज गँवाय,
मन का जो नादान है, नासमझी करि जाय|
नासमझी करि जाय, क्षोभ दिल पर ले लेता,
करके भागमभाग, रोग को न्योता देता|
बिगड़ें जब हालात, काम आती नहिं दौलत,
समझो तन का मोल, वही होता धन दौलत|
............ऋता शेखर 'मधु'