रविवार, 28 अक्टूबर 2012

चाँदनी फलक पे थिरक उठी




शरद की पूनम है आज
चन्द्र-आभा को हो रहा नाज
ओ कायनात, मुस्कुरा भी दो
दूर हुआ है धरा का दाज(अंधकार)
शबनमी मोतियाँ गिरने लगीं
गुलाबी ठंढ का है आगाज
चाँद ने चुपके से छेड़ा
मध्यम सुर में मधुर साज
चाँदनी फलक पे थिरक उठी
सबने जाना दिल का राज
अधरों पे स्मित सजा के लाया
सनम जो अब तक था नाराज
दुधिया उजालों की चमक में
सितारे भी बने आतिशबाज
झिंगुरों को यह क्या हुआ
वे भी बन रहे चुहलबाज
रौशनी चाँद की ज्योंही पड़ी
ताज का बदल गया अंदाज
किरणों की बारिश समेट
खीर-अमृत ने दी आवाज
जीवन में मिठास बनी रहे
खुश रहें सबके मिजाज|

ऋता शेखर 'मधु'

Enjoy Sharad Purnima…

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

ठनी लड़ाई




ठनी लड़ाई

आज मेरी गणपति की सवारी के साथ ठन गई| गणपति के सामने लड्डुओं से भरा थाल रखा था| उन लड्डुओं पर भक्त होने के नाते मैं अपना अधिकार समझ रही थी और वह मूषक अपना...आखिर गणेश का प्रिय जो था| मेहनत की कमाई से लाए लड्डुओं को लुचकने के लिए वह तैयार बैठा था| चूहों की तरह कान खडे करके गोल-गोल आँखें मटकाता दूर से ही वह सतर्क था कि मैं कब अपनी आँखें बन्द करके ध्यान में डूबूँ और वह लड्डुओं पर हाथ साफ करे| मैं भी कब दोनों आँखें बन्द करने वाली थी| एक आँख बन्द करके गणेश जी को खुश किया और दूसरी आँख खुली रखकर चूहे पर नजर रखी| किन्तु ये भी कोई पूजा हुई भला...देवता से ज्यादा ध्यान चूहे पर!
पल भर के लिए सीन बदल गया| थाल में लड्डुओं की जगह मेहनत की कमाई दिख रही थी और चूहे में वह भ्रष्टाचारी जो एरियर का बिल बनाने के लिए पैसों पर नजर जमाए बैठा था| फिर तो मैंने भी ठान लिया...उस चूहे को एक भी लड्डू नहीं लेने दूँगी|


ऋता शेखर मधु

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

ये हवाएँ...




पर्वतों और समुद्रों को लांघती
कितने ही धूल-कणों को समेटती
सागर की नमी सँभालती
ये पुरवा और पछुआ हवाएँ
कुछ कहने आती हैं
झंझोड़ देती हैं खिड़की दरवाजे
इन्हें बन्द करने में
कुछ थपेड़े चेहरे पर पड़ते हैं
फिर भी बन्द कर देते हैं खिड़कियाँ
किन्तु उन साँय सांय करती
हवाओं की आवाज
क्या चैन से बैठने देती है
थक कर शांत क्लांत हवा
या तो चुप हो जाती है
या दिशा बदल देती है
यह है हवा की बात
अब देखते हैं उन्हें
जिन्होंने दरवाजे बन्द किए
सन्नाटे को पाकर
झाँकती हुई आँखें
क्या आँधियों के अवशेष
धूल की परत फ़र्श पर नहीं देखती
नमी के छींटे से
खिड़कियों के परदे
क्या भीगे नहीं होते
अनकहा दर्द झलक ही जाता है|
परिवार में
किसी एक के जीवन में आई सुनांमी
सबको अस्त-व्यस्त कर देती है
यह अलग बात है
किसी से ममता मिलती है
किसी से सहानुभूति
कटाक्ष से भी बचना मुश्किल है
इसलिए प्रभु से जब भी माँगो
सबकी खुशियाँ माँगो
सब खुश रहेंगे
तभी हम भी खुश रहेंगे
सिर्फ अपना सुख कुछ नहीं होता
सबकी खुशी में ही
अपनी भी खुशी होती है|

ऋता शेखर मधु

विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!!

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

रिश्तों को मजबूत बनाते हैं हमारे रीति रिवाज



रिश्तों को मजबूत बनाते हैं हमारे रीति रिवाज

रिश्तों का बंधन अटूट होता है किन्तु इनमें भी ताजगी बनाए रखने में कुछ परम्पराओं की अहम भूमिका होती है| भारत उत्सव प्रधान देश है| साथ ही रीति रिवाजों का भी देश है जो ढीले होते रिश्तों को पकड़ प्रदान करता है| ये रिवाज रिश्तों को अहमियत देते हैं दिखावों को नहीं| घर में नए सदस्य का आगमन अपार खुशियाँ लाता है| बच्चे के जन्म की खुशी धूमधाम से मनाई जाती है| उत्तर भारतीय परिवारों में बच्चे के जन्म के छह दिनों बाद छठी(जन्मोत्सव) का रस्म मनाया जाता है| जन्म से लेकर छट्ठी तक बच्चा पुराने कपड़ों में रहता है| छठी के दिन शाम को उसे नए पीले वस्त्र- पाजामा, कुर्ता, टोपी  पहनाई जाती है| हाथ-पैरों में लाल या काले धागे पहनाए जाते हैं| जहाँ पर छट्ठी पूजन का कार्यक्रम होना है वहाँ पर बच्चे की माँ से कुछ रस्में करवाई जाती हैं| वहीं पर एक पीढ़ा( काठ की बनी छौटे पैरों वाली चौकी) रखी जाती है| पीले कपड़े में लपेटकर बच्चे को उसपर रखा जाता है| बच्चे के ऊपर सफेद कागज रखकर उसपर लाल कलम से कुछ भगवानों के नाम लिखे जाते हैं, ऐसा माना जाता है कि वे भगवान बच्चे के लिए अच्छी किस्मत लिखेंगे| उसके बाद घी का दीपक जलाकर चाँदी, काँसे या पीतल की थाली पर उसकी कालिख मतलब काजल बनाई जाती है| वही काजल बच्चे की आँखों में लगाया जाता है| ये सारे कार्यक्रम बच्चे की बुआ के हाथों सम्पन्न होते हैं|
 उसके बाद जो भी दस- पन्द्रह तरह के पकवान बनते हैं वह बच्चे की माँ को खाने के लिए दिए जाते हैं और यह खाना वह ननद के साथ खाती है|
अभी हाल में ही पड़ोस में छठी में गई थी| सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं| किन्तु रस्म शुरु नहीं किए जा रहे थे क्योंकि बच्चे की बुआ अर्थात घर की बेटी अर्थात बच्चे के पापा की बहन नहीं आई थी| उसका बेसब्री से इन्तजार किया जा रहा था| उस लड़की की समस्या यह थी कि ससुराल से मायके आने की इजाजत उसे कम ही मिलती थी| दोनों परिवार समझदार थे इसलिए इस बात को लेकर उनमें कोई रंजिश नहीं थी| चूँकि वह बच्चे की इकलौती बुआ थी इसलिए उसे आना ही आना था| अचानक सुगबुगाहट हुई कि बुआ आ गई| पूरा घर खुशियों से चहक उठा| माता पिता भाई सबके चेहरे पर रौनक आ गई| जो घर अभी तक खामोश नजर आ रहा था वहाँ बिटिया के आते ही बहार आ गई| बेटी भी दौड़कर अपने नन्हे भतीजे के पास गई| उसने खुशी खुशी सारा रस्म किया| बिटिया को काजल पराई के लिए नेग मिला| इस तरह बड़े ही हँसी-खुशी के माहौल में यह उत्सव सम्पन्न हुआ| उस वक्त मैं यही सोच रही थी कि हमारे रिवाजों ने बेटी के इस रिश्ते को इतने जबरदस्त रस्मों से न बाँधा होता तो उस समय वह कभी नहीं आती| ऐसे अनेक रिवाज हैं जो बेटी, बहन, भाई, भाभियों के ही होते हैं और उस वक्त उनका उपस्थित रहना अनिवार्य होता है| तो क्या ख्याल है आपका...रस्म-रिवाज रिश्तों को बाँधकर रखते हैं या नहीं|
ऋता शेखर 'मधु'

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

भजामि विन्ध्यवासिनीं


नवरात्र शुरु हो गया...भक्ति, पूजा, अर्चना, स्तुति, मंत्रोच्चार, शंखध्वनि, अगबत्तियाँ, कपूर...अर्थात्  सब कुछ मिलकर पावन पवित्र वातावरण...मन शक्तिस्वरूपा माँ दुर्गा में लीन...पूजा-पाठ-आरती...इसी तरह से दिन बीतेगा...माँ की आराधना में जो स्तोत्र मुझे सबसे अच्छा लगता है वह पोस्ट कर रही हूँ|



निशुम्भ शुम्भ गर्जनी, प्रचन्ड मुण्डखण्डिनी
बनेरणे प्रकाशिनी भजामि विन्ध्यवासिनी
त्रिशूल मुण्ड धारिणी धराविधात हारिणीं
गृहे गृहे निवासिनी भजामि विन्ध्यवासिनी
दरिद्र दुःख हारिणी, सदा विभूति कारिणीं
वियोग शोक हारिणीं भजामि विन्ध्यवासिनी
लसत्सुलोल लोचनं लतासनं वरंप्रदम
कपाल- शूलधारिणी, भजामि विन्ध्यवासिनी
कराब्जदानदाधरां, शिवाशिवं प्रदायिनी
वरा- वराननां शुभां भजामि विन्ध्यवासिनी
कपीन्द्र जामिनीप्रदं, त्रिघा स्वरूप धारिणीं
जले- थले निवासिनीं, भजामि विन्ध्यवासिनी
विशिष्ट शिष्ट कारिणीम, विशाल रूप धारिणीं
महोदरे विलासिनीं, भजामि विन्ध्यवासिनी
पुरंदरादि सेवितां पुरादिवंश खण्डिताम
विशुद्ध बुद्धिकारिणीं, भजामि विन्ध्यवासिनी

!!!नवरात्र की मंगलकामनाएँ !!!

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

ये तुम कौन




ये तुम कौन
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इस संध्या की बेला में,

जब निपट अकेला बैठा मैं
पर भगदड़ के बीचों इस मौन 
में अठ्ठहासी ये तुम कौन?


पल ये कितने चले गए
अनंत अर्णव में बिखर गए
बीत गया जो पहर ये पौन
फिर भी जाने मन क्यों गौण...

ध्यान से परे कैसा ये खेल
विषाद भी है और है अठखेल
चहुँ ओर तो सिर्फ हैं रौन
फिर मन में सन्यासी कौन?

कट कट कर बहता है चित्त
मृत नहीं - अत्यंत विचित्र
लथपथ पड़ा बिचारा जौन
उसी के कारण मन ये मौन...



शिशिर शेखर......मेरे सुपुत्र






मेरी नकल कर रहा हैः)

बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

आत्मा की बेड़ी




पितृपक्ष चल रहा है...पिण्डदान और तर्पण भारत की परम्परा है|
इसी बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करते हैं...तो बस यूँ ही ख्याल आया...   

आत्मा की बेड़ी

आत्मा है
बेड़ी रहित
अमर उन्मुक्त
अजर अनन्त|

बेख़बर है
खुशी और गम से
अनजान है
दर्द और संघर्ष से|

जगत की चौखट पर
रखते ही कदम
आरम्भ होती
बेड़ियों की श्रृंखला|

सर्वप्रथम मिलती
काया की बेड़ी,
फिर जकड़ती
एहसास की बेड़ी,
महसूस होने लगता
खुशी और गम
दर्द और जलन|

जन्म लेते ही चढ़ता
शरीर पाने का ऋण
होता वह    
मातृ-पितृ ऋण की बेड़ी|
चुकता है तभी यह उधार |
करते जब उनका शरीरोद्धार|


जन्म लेते ही
स्वत: जाती है जकड़
रक्त-सम्बन्ध की बेड़ी|
प्यार से निभाएं अगर
रहती है रिश्तों पे पकड़|


सभ्य समाज ने जकड़ी
अनुशासन की बेड़ी,
दाम्पत्य की बेड़ी,
वात्सल्य की बेड़ी|
इन प्यारी बेड़ियों को
रखना है साबूत,
कर्त्तव्य की बेड़ी को
करना होगा मज़बूत|
                       
कुछ बेड़ियाँ होती भीषण
फैलातीं भारी प्रदूषण|
हैं वह
 कट्टर धर्म की बेड़ी
 जातीयता की बेड़ी
अहम् की बेड़ी,
जलन की बेड़ी|
                 
बेड़ी मोह माया की
तोड़ना नहीं आसान,
स्वत: टूट जाएंगी
होगा जब काया का अवसान|

जीवन विस्तार को भोग
होंगे पंचतत्व में विलीन|
आत्मा फिर से होगी
बेड़ी रहित
स्वच्छन्द और उन्मुक्त|
      ऋता शेखर मधु

शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

तुम 'टफ़' नहीं हो




एक लड़की थी जिसका चुप-चुप सा चेहरा मुझे बहुत आकर्षित करता था|ऐसा लगता था जैसे सबके बीच होकर भी वह वहाँ पर नहीं है|अपने बारे में वह बातें भी नहीं करती थी| बाद में पता चला कि हैवान पति के चंगुल से किसी तरह उसकी जान बच पाई थी|उस वक्त उसके दो बच्चे थे जो दो और तीन साल के थे|बच्चों के लिए वह नौकरी कर रही थी| उस लड़की के सामने पहाड़ सी ज़िन्दगी पड़ी थी|उसके घर वाले चाहते थे कि वह दूसरी शादी कर ले किन्तु वह नहीं मानी|
घर आने पर मैंने उस लड़की को केन्द्र में रखकर एक कविता लिखी और उसे पर्स में रख लिया|दो दिनों बाद ऐसा संयोग लगा कि वह मेरे पास ही बैठी थी|मैंने उसे बताया कि मैं थोड़ा बहुत अपनी कलम चलाती रहती हूँ और इंटरनेट पर डालती हूँ|
मैंने उससे कहा कि मैंने एक नई कविता लिखी है,जरा पढ़कर बताओ कैसी बनी है|
यह कहकर मैंने उसे वह कागज पकड़ा दिया|मैं लगातार उसे देख रही थी क्योंकि मैं उसकी प्रतिक्रिया जानना चाहती थी|वह पढ़ने लगी...

नारी
सीधी लौ बनी
गर्व से तनी
स्थिरता से
तिल तिल कर जलती रही
रौशनियाँ लुटाती रही
आँधियों को आना था
आकर गुजर गईं
मद्धिम होती लौ को
अपने ही बलबूते
संभालती रही
पर जलती रही|

आँधियों की कसक लिए
लौ ने फिर से सर उठाया
रौशनी को तेज बनाया
मौसम बदले
हालात बदले
ख़यालात बदले
उपमा मिली
अडिग पर्वत की
उस पर्वत के भीतर झाँको
क्या कह रहा है वह
इसे तो आँको
कण-कण में बिखरा
सिर्फ धूल है वह
शौर्य के सूरज से पूछो
कितनी निराश किरणों को
झेला है उसने
खिले बसंत से पूछो
पतझर की पीड़ा भी
दबी मिलेगी
बहती नदी से पूछो
रोड़े पत्थरों से गुजरती
कितनी लहुलुहान है वो
खिलखिलाते वन उपवन से पूछो
कैक्टसों को भी पाला है उसने|

जीवन में कभी घबड़ाना नहीं
जिन्हें जीने का मकसद बनाया
बस उनके लिए ही जीती जाओ
दुनिया के लिए तुम टफ हो
पर मैं जानती हूँ
तुम टफ़ नहीं हो
क्योंकि, तुम एक नारी हो
क्योंकि, तुम एक माँ हो|

उसकी आँखों से टपकते आँसुओं ने मेरी पूरी कविता ही धो डाली थी|मैंने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा और हमारे बीच एक रिश्ता बन गया|अब बहुत सारी बातें हैं जो वह मुझसे शेयर करती है| एक दिन मैंने उससे पूछा ...तुमने दूसरी शादी क्यों नहीं की|
दीदी, इससे मेरी जिन्दगी तो सँवर जाती पर बच्चों से उनकी माँ छिन जाती’’...फिर मैंने कुछ नहीं कहा...शायद वह सही थी|

ऋता शेखर मधु