शुक्रवार, 29 मई 2020

ताटंक छंद में दिनकर

ताटंक छंद में दिनकर

Rising sun and sunflowers - Fields & Nature Background Wallpapers ...

पूर्व दिशा से लाल चुनरिया, ओढ़ धरा पर आते हैं |
ज्योति-पुँज हाथों में लेकर, शनै-शनै बिखराते हैं ||
सफर हमारा चले निरंतर, घूम-घूम बतलाते हैं |
अग्नि-कलश माथे पर धरकर, हम दिनकर कहलाते हैं ||



स्वर्ण रश्मियों की आहट से, खेतों ने अँगड़ाई ली |
हाथ उठे जब सूर्य अर्ध्य को, जीभर जल तुलसी ने पी ||
उषा संगिनी साथ चली है, पंछी राग सुनाते हैं |
भ्रमर निकलते पुष्प दलों से, सूर्यमुखी खिल जाते हैं |


भोर-साँझ की बात निराली, नभ लगते नारंगी हैं |
हर्ष रागिनी और उमंगें, ये सब मेरे संगी हैं ||
श्वेत रंग की किरण हमारी, सबको यह समझाते हैं |
पहनें जब सतरंगी कुर्ता , इंद्रधनुष बन जाते हैं ||


सहती जाती ताप धरा जब, हम भी तो घबराते हैं |
बाँध पोटली में सागर तब, अम्बर को दे आते हैं ||
मेघों के पीछे से छुपकर, मोर देख हरसाते हैं|
बूँदों में भर प्रेम सुधा रस, छम छम नाच दिखाते हैं||


तम चाहे जितना काला हो, उज्ज्वलता से हारा है |
क्षणिक धुंध से निपट बढ़ेंगे, यह संकल्प हमारा है ||
साँझ ढले हम गए झील में, जग को यह दिखलाते हैं |
सच तो यह है जीवन देने, दूर देश को जाते हैं ||

@ऋता शेखर ‘मधु’
29/05/2020

बुधवार, 27 मई 2020

रिक्शावाला- छंदमुक्त कविता

रिक्शावाला | abvishu
चित्र गूगल से साभार
रिक्शावाला.....

राह को स्वेद से सींचता हुआ
रिक्शे को दम से खींचता हुआ
बाहों पर उभरी नसें लिये
वह कृशकाय, वृद्धावस्था में
रिक्शे को लिए जा रहा है
आसमान में धूप चढ़ी है
सवारी को तिरपाल से बचाता
अपना सिर गमछ से बचा रहा
हाँ, वह रिक्शा चला रहा
सवारी को बुला रहा

धमनी में बहते हुए रक्त
कभी होने लगते निःशक्त
बैठे बैठे लग जाती है झपकी
तभी काँधे पर पड़ती थपकी
“ऐ उठो, पहुँचा दो चौक पर”
सजग होता अधमुंदी आखों से
चल पड़ता है पैडल घुमाता
नसें तड़तड़ाती हैं
वह रुकता नहीं
हताश तब होता है जब
सवारी चंद सिक्कों से भी
कुछ बचा लेना चाहती है
लड़ पड़ती है उस गरीब से
तब दिख जाती है
अमानवीयता करीब से

सड़कें सूनी हैं लॉकडाउन में
अब कोई नहीं उठाता उसे
कोई पैसों की झिकझिक नहीं करता
एक टक देखता बैठा है
गाहे बेगाहे दिख जाने वालों को
पर कोई नहीं आ रहा उस ओर
वह दिहाड़ी कमाने वाला
रिक्शे पर बैठा है
सूनी निगाहें लिये
बच्चों की भूखी बाहें लिए|

@ऋता शेखर ‘मधु’

सोमवार, 25 मई 2020

भीड़ का निर्माता-लघुकथा

birds in the sky | Tumblr
भीड़-निर्माता

“रोहित! इधर आओ, ये देखो, आसमान में अचानक इतने सारे पक्षी उड़ने लगे| सब कितने परेशान दिख रहे न| लगता है किसी ने इनका ठिकाना ही उजाड़ दिया हो| और ये आवाज कैसी आ रही, सुनो तो,” पत्नी प्रिया ने रोहित को बालकनी में बुलाकर कहा|

“अरे , ये तो पेड़ पर पेड़ काटते जा रहे| वो देखो, सामने उस जंगल के बहुत सारे पेड़ काट दिये| बिजली से चलने वाली कुल्हाड़ी की आवाजं है यह”, चौदहवें तल्ले से ध्यान से जंगल को देखते और आवाजों को सुनते हुए रोहित ने कहा|

“ओह! अब ये कहाँ जाएँगे बेचारे| इतने पंछियों को बेघर करने का श्राप लगेगा उन्हें| रोहित कुछ करो न! किसी को तो फोन करो जो आकर रोके उन्हें,” बेचैन सी प्रिया इधर- उधर टहलने लगी|

“हाँ, अभी फोन करता हूँ,” कहकर रोहित कमरे में चला गया|

तभी कूकर ने सीटी मारी और प्रिया किचेन में गैस बन्द करने जा रही थी कि कमरे से आती रोहित की आवाज सुनकर रुक गई और सुनने लगी|

“रघुवीर, उस लिस्ट को रद्द कर दो जिसमें मिल के पाँच सौ मजदूरों को नौकरी से हटाने की बात कही गई है| ये लौकडाउन कभी न कभी तो खत्म होगा ही, हम उन्हें बिना काम के भी तनख्वाह देते रहेंगे |’

प्रिया गहरी साँस लेती किचेन की ओर चल दी| उसकी बेचैनी थम चुकी थी|

@ऋता शेखर ‘मधु’

२५/०५/२०२०

सोमवार, 11 मई 2020

वह एक रात-कहानी

भुतिया हवेली की दास्ताँ - Horror Stories

मित्रों, एक प्रयास हॉरर कहानियाँ लिखने का...त्रुटियाँ अवशाय बताएँ जिससे आगे सुधार कर सकूँ| अच्छी लगे वह भी बताएँ उत्साहवर्धन हेतु|

वह एक रात

( भुतही हवेली पर आधारित)

नेहा को अपने गाँव पहुँचने में देर हो गई थी | ट्रेन पाँच घंटे देर थी जिस कारण से जो ट्रेन शाम सात बजे पहुँचने वाली थी वह रात के ग्यारह बजे पहुँची थी| नेहा ने घर में बताया नहीं था कि वह आ रही है| बताती तो बुआ परेशान हो जाती| नेहा शहर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी| जब भी तीन या चार दिनों की छुट्टी मिलती वह अपनी बुआ के पास गाँव चली आती थी| बचपन में ही माता पिता की मृत्यु हो चुकी थी, बुआ ने ही उसे रखकर पाला था| बुआ के दो बच्चे थे| उनके साथ ही रहती हुई, लड़ती झगड़ती, लाड़ लगाती बड़ी हुई थी| दोनों भाई- बहन बाहर के शहरों में नौकरी करते थे | फूफा जी नहीं थै| बुआ गाँव छोड़कर जाना नहीं चाहती थीं| नेहा पूरे गाँव की लाडली थी | सबके घरों में उसका आना जाना लगा रहता था | उसका विनोदी स्वभाव सभी को पसंद था|

ऐसी ही छुट्टी में वह गाँव आई थी रात के ग्यारह बजे चारो और सन्नाटा हो चुका था| नेहा बहुत सामान लेकर नहीं आती थी | पीठ पर एक बैग होता जिसमें ट्रेन में पढ़ने के लिए दो चार किताबें होतीं, पानी की बॉटल होती और रास्ते के लिए कुछ स्नैक्स होते थे| कपड़े तो लेती नहीं थी | बुआ के घर कपड़े लेकर जाने की आवश्यकता नहीं होती थी|

रेलवे स्टेशन से घर नजदीक ही था तो पीठ पर बैग लादे वह पैदल ही घर की ओर आने लगी| गाँव में प्रवेश करते ही उसे लगा कि कोई उसके पीछे- पीछे चल रहा है पलटकर देखी तो गाँव में सेठ की हवेली में रहने वाली उनकी बहु जैसी लगी|

“अरे भाभी आप! इतनी रात को बाहर क्या कर रही हो|”

उसने नेहा का हाथ पकड़ लिया और बोली,”हवेली चलो”

“पर क्यों, बुआ के घर जाऊँगी न|”

“नहीं, इतनी रात लड़कियों का बाहर चलना ठीक नहीं | हवेली में रात बिता लो, सवेरे चली जाना|”

“ठीक है भाभी ”, कहकर वह साथ साथ चलने लगी| रास्ते भर दोनों चुप रहे| नेहा ने कुछ बातें करने की कोशिश की तो भाभी ने उत्तर नहीं दिया|

हवेली पहुँच कर भाभी ने कहा कि नेहा हाथ मुँह धो ले उसके बाद वह खाना लगाती है| नेहा वॉशरूम चली गई| सब कुछ करीने से रखा हुआ था| नेहा ने ठंडे पानी से हाथ पैर धोया, चेहरे पर छींटे मारे और बाहर आ गई| तब तक भाभी ने डायनिंग टेबल पर खाना लगा दिया था| खकाना में बहुत सारी डिशेज बनी हुई थीं| नेहा ने सबसे पहले गाजर के हलवे पर हाथ साफ किया| फिर अन्य चीज़ें खाने लगी| भाभी लगातार वहीं पर हल्के घूँघट में बैठी रही| नेहा ने जब खाना खा लिया तो उसकी फेवरिट आइसक्रीम भी आई| उसे भी नेहा ने खाया | उस दौरान दोनों ही चुप रहे| अचानक नेहा ने पूछा, “भैया कहाँ हैं भाभी, और अंकल जी भी नहीं दिख रहे|”

“वो सहारनपुर गये हैं| कल ही उनकी वापसी है ट्रेन से| अच्छा, अब तुम कमरे में जाकर सो जाओ| मैं भी जाती हूँ| सवेरे अपने घर चली जाना|”

“ओके भाभी”, कहकर वह चली गई|

थोड़ी ही देर में वह गहरी निद्रा में थी| अचानक खटपट की आवाज से उसकी नींद खुल गई | उसे लगा जैसे किचेन का दरवाजा खुला और कोई वहाँ घुसा|

‘आधी रात को कौन हो सकता है, कहीं कोई चोर तो नहीं’, यह सोचकर वह धीरे से उठी और किचेन की ओर गई|

वहाँ कोई नहीं था, पर बेसिन का नल खुला था| कोई नजर नहीं आ रहा था किन्तु बरतन धोकर रैक पर रखे जा रहे था| नेहा बेआवाज खड़ी रही | उसके रोंगटे खड़े हो गए जब उसने देखा कि अचानक गैस स्टोव जला और किसी ने रोटियाँ सेंकनी शुरु कीं| बस इतना ही पता चल रहा था था कि रोटियाँ बेली जा रही थीं, तवे पर जा रही थीं और फिर कैसरोल में रखी जा रही थीं| वह भाभी के कमरे की ओर गई पर वह बंद था| उसने आवाज करना उचित नहीं समझा| वापस आकर बिस्तर पर सो गई| रसोई में खटपट जारी थी| कुछ देर बाद फिर से दरवाजा खुला और कोई चला गया| नेहा चुपके से उठी और किचेन में गई| सुबह के नाश्ते जैसा खाना करीने से रखा था| उसने सभी कैसरोल को ढक्कन उठा- उठाकर देखा| रोटियों के साथ पनीर की सब्जी, खीर, दही , रायता सब कुछ था| नेहा वापस कमरे में आ गई| थोड़ी देर में उसकी आँख लग गई| सुबह सुबह ही उसे घर जाना था किन्तु उसकी नींद नहीं खुली| कमरे में धूप आ चुकी थी| चिड़ियों की चहचहाहट मन को भा रही थी| उसने आँखें खोलीं| सामने दीवार घड़ी सुबह के आठ दिखा रही थी| अचानक नेहा को रात की घटना याद आ गई| उसके मस्तक पर पसीना चुहचुहा गया| बिना चप्पल पहने वह कमरे से बाहर झाँकने लगी| उसने देखा कि डायनिंग टेबल पर खाना लगा हुआ था| कुछ लोग खा भी रहे थे| पर कौन...कोई दिख नहीं रहा था और रोटियाँ प्लेट से घटती जा रही थीं| दस मिनट में सारी प्लेटें खाली थीं| लगता है खाने वाले तीन लोग थे क्योंकि तीन प्लेट ही खाली हुई थी| बाकी प्लेटें पलट कर रखी हुई थीं|

“आओ नेहा, तुम भी नाश्ता कर लो”, अचानक भाभी कहीं से प्रकट हो गईं

“भाभी, अब मैं घर जाना चाहती हूँ|”नेहा ने कँपकँपाती आवाज़ में कहा|

“नाश्ता कर लो फिर जाना,”लहजा थोड़ा आदेशात्मक था जिसे नेहा इंकार नहीं कर सकी| उसने खाना खाया पर आज उसे कुछ भी रुचिकर नहीं लग रहा था| किसी तरह पानी पीकर गटक गई और उठ खड़ी हुई| भाभी कहीं नहीं दिख रही थीं| उसने कहा, “भाभी जा रही हूँ”, पर किसी ने प्रत्उत्तर नहीं दिया| वह अपना बैग लेकर बाहर जाने लगी| बाहर का दरवाजा अपने आप ही खुल गया जैसे वहाँ पर कोई खड़ा था| उसने एक नजर ड्राइंग रूम पर डाली| सामने दीवार पर अंकल जी और भैया की बड़ी सी फोटो लगी थी और उनपर खुशबूदार चंदन की माला लटक रही थी| नेहा बेहोश होते होते बची| सारी शक्ति समेटकर वह बड़े बड़े डग भर दरवाजे से बाहर निकली | उसे लगा कि किसी ने दरवाजा बंद किया था| उसे पलटकर देखने की हिम्मत नेहा को न हुई|

वह तेजी से घर की ओर बढ़ी जा रही थी| उसने अहाते का गेट खोला और अन्दर घुसी| बुआ तुलसी को जल दे रही थीं| नेहा को देखते ही बुआ का चेहरा खिल गया|

“कब ई बेटी, आने से पहले बताना भी जरूरी नहीं समझती,” बुआ ने लाड़ लगाते हुए कहा|

“कल रात ही आई थी बुआ”,”बुझी हुई आवाज में नेहा ने कहा |

नेहा का चेहरा उड़ा हुआ था, बुआ को यह भाँपते देर न लगी |

“कल रात ही आई तो अब तक कहाँ थी”, किसी आशंका ने बुआ को घेर लिया|

“सामने अंकल जी की हवेली में थी, वहीं रात का खाना खाया| सुबह भी भाभी ने नाश्ता भी करवा दिया| किंतु भाभी ने यह क्यों कहा कि भैया और अंकल आज सहारनपुर से आने वाले हैं जबकि आते आते मैंने देखा कि भैया की फोटो पर माला लगी थी|”

“ओह, एक महीने पहले की बात है कि दोनों बाप बेटे ट्रेन से सहारनपुर से आ रहे थे| तेरी भाभी स्टेशन पर उनको लाने गई थी| अभी ट्रेन कुछ दूर पर थी खी एक तेज रफ्तार ट्रेन से उसकी टक्कर हो गई| उसी दुर्घटना में दोनों चल बसे| यह देखते ही भाभी का करुण क्रंदन गूँजा ‘मैं आपके बिना नहीं जी सकती” कहते हुए वह दूसरी पटरी पर आ रही ट्रेन के सामने आ गई और वह भी चली गई|”

“ओह”, झुरझुरी सी उठी नेहा के शरीर में|

“तब से वह हवेली भुतही हो गई| वहाँ कोई आता जाता नहीं|”

“लेकिन बुआ, वह हवेली अन्दर से साफ सुथरी है| वहाँ खाना भी पकता है तभी तो भाभी ने खिलाया|”

“भाभी ने खिलाया”, कहते हुए बुआ की तंद्रा टूटी ”सही सलामत आ गई मेरी बच्ची”कहते हुए बुआ ने नेहा को गले से लगा लिया|

भूत प्रेत पर विश्वास न करने वाली नेहा अब अविश्वास नहीं कर पा रही थी|

ऋता शेखर ‘मधु’