बुधवार, 30 मई 2012

एक कहानी यह भी...




एक कहानी यह भी...
हिन्दी दैनिकआजके शिक्षानामा से साभार(२८ मई-१२)
लेखक- डॉ लक्ष्मीकांत सजल
वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षा प्रतिनिधि
हिन्दी दैनिकआज,पटना |

उस दिन कम्पीटीशन था मेढकों के बीच.सो बड़ी संख्या में मेढक पहुँचे थे.पास- पड़ोस के गढ्ढे तालाब से.और दूर दराज के गढ्ढे- तालाबों से भी. फुदक फुदक कर चलते हुए.उनमें भाँति- भाँति के मेढक थे.छोटे- छोटे मेढक, मद्धम कद के मेढक और ढाबुस भी.सभी मेढक जमा हुए पहाड़ी के नीचे तलहटी में.कुछ तो कम्पीटीशन में हिस्सा लेने पहुँचे थे, बाकी दर्शक बन तमाशा देखने. कम्पीटीशन शुरू होने में देरी थी इसलिए सभी उछल-कूद कर रहे थे.बच्चे उधम मचा रहे थे टर्र-टर्र कर. टर्र-टर्र तो बुजुर्ग भी कर रहे थे लेकिन बच्चों को शांत करने के लिए.कम्पीटीशन में हिस्सा लेने वालों की टरटराहट अलग किस्म की थी इसलिए कि वे काफी जोश में थे.मेढकों की टरटराहट से ऐसा लग रहा था जैसे वे बारिश के इन्तेज़ार में हों.लेकिन उन्हें बारिश का इन्तेज़ार थोड़े ही था.उन्हें तो कम्पीटीशन शुरु होने का इन्तेज़ार था.मेढकों के पहाड़ पर चढ़ने का कम्पीटीशन, पहाड़ की चोटी पर पहुँचने का कम्पीटीशन .
खैर,नियत समय पर कम्पीटीशन शुरु हुआ.कम्पीटीशन में हिस्सा लेने वाले मेढक पहाड़ पर चढ़ने लगे फुदकते हुए.अब बाकी मेढक साँस रोकर कर उन्हे देख रहे थे,फुदक-फुदक कर पहाड़ की ऊँचाइयाँ तय करते हुए.कुछ तो चढ़ने के साथ ही लुढ़क कर नीचे आ गिरे.जो चढ़ते जा रहे थे, उन्हें नीचे से शाबाशियाँ मिल रही थीं.प्रशंसा के स्वर मिल रहे थे.जहाँ किसी और गढ्ढे या तालाब का मेढक आगे निकलता, नीचे जमा दूसरे गढ्ढे या तालाब के मेढक उदास हो जाते.समय गुजरता गया और मेढक नीचे गिरते गए.धीरे-धीरे तमाम मेढक नीचे आ गिरे.अब सिर्फ एक मेढक बचा था.वह फुदक-फुदक कर आगे बढ़ा जा रहा था,ऊँचाइयाँ तय करते हुए.उसके सामने उसका लक्ष्य था.नीचे जमा तमाम मेढक टकटकी लगाए उसे ही देख रहे थे, यह देखने के लिए कि वह कि वह अपने लक्ष्य तक पहुँचता है या नहीं.नीचे से सभी उसका उत्साह बढ़ा रहे थे.आखिरकार उसने अपने लक्ष्य को छू ही लिया.पहाड़ की चोटी पर पहुँचते ही उसने दोनों हाथ हिलाए, विजेता की मुद्रा में.नीचे जमा सभी मेढक खुशी के मारे उछल पड़े.
वह नीचे उतरा तो उसे फूलमालाओं से लाद दिया गया.हर गढ्ढे तालाब के मेढक उसे बधाई देने लगे.जो छोटी नदियों से आए थे वे भी बधाई देने लगे.लेकिन वह तो निर्विकार था.इस तरह कि जैसे सुन ही नहीं रहा हो.बाद में पता चला कि वह मेढक बहरा था.
यह कहानी संपादक जी ने तब सुनाई जब उनकी पुस्तक रिलीज हो रही थी.सो कहानी का सार यह है कि अगर वह मेढक बहरा नहीं होता तो अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाता.बाकी मेढकों की तरह वह भी नीचे आ गिरा होता, अपने साथियों से आलोचना या प्रशंसा के स्वर सुनकर.लक्ष्य को वही हासिल कर सकता है जिसे आलोचना या प्रशंसा की चिंता न हो. उसे चिन्ता हो तो सिर्फ अपने लक्ष्य की.  


प्रस्तुति- ऋता शेखर 'मधु'

सोमवार, 28 मई 2012

आ मेरे हमजोली आ...



‘‘आ मेरे हमजोली आ
खेलें आँखमिचोली आ’’
आप सोच रहे होंगे
मैं इसे क्यों गुनगुना रही हूँ
तो सुनिए...
आँखमिचोली का गेम
खेल रहे हैं दो लोग
एक मैं और एक
मेरे इलाके की बिजली
कभी मैं जीत जाती हूँ
कभी वह जीतती है.
मैं बज़ाप्ता
कम्प्यूटर के पास बैठती हूँ.
ब्लॉगर खोलती हूँ
साइन इन होती हूँ
कभी कोई रचना
पोस्ट करने के लिए
कभी टिप्पणी डालने के लिए
सारे पेज़ खोलती हूँ
लिखना शुरु करती हूँ
अचानक बिजली रानी
ठेंगा दिखाती हुई
गुल हो जाती है
जल्दी जल्दी
खुले पेज समेटती हूँ
मतलब सारी प्रक्रिया बेकार
फिर टकटकी लगाए इन्तेजा़र
फिर महारानी जी पधारती हैं
झट सारे प्रॉसेस दोहराती हूँ
एकाध जगह टिप्पणी डालने में
सफल हो जाती हूँ
विजय भाव से मुस्कुराकर
बिजली की ओर देखती हूँ
मानो मैंने गेम जीत लिया न!!
यू पी एस महोदय ने भी
दो टूक कह दिया
मैं इस आँखमिचोली में
साथ नहीं दे सकता
ठीक है भई,
मत दो साथ
मैं नहीं हारने वाली
आँखमिचोली का
यह खेल जारी है
हा हा हा...
आपने भी एनज्वाय किया न...

ऋता शेखर मधु

शनिवार, 26 मई 2012

मास्साब...


मास्साब...


एक मास्साब थे...वही मतलब मास्टर साहब...नौकरी नहीं मिली इसलिए घर घर जाकर ट्युशन पढ़ाते थे. सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास रखते थे.विचार सचमुच उच्च थे क्योंकि पढ़ाने में कभी लापरवाही नहीं दिखाते थे और कोर्स भी समय पर पूरा करते थे.
गणित जैसे कठिन विषय को बिल्कुल आसान कर देते थे.किन्तु सादा जीवन अपनाना उनकी मजबूरी थी.जब स्कूल में ही पढ़ते थे तो उनके पिताजी का देहान्त हो गया था.माँ और छोटे-छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी उनपर आ गई थी.तभी से ट्युशन पढ़ाना शुरु किया.सबकी जरूरतें पूरी करते करते अपने बारे में सोचने की फुर्सत नहीं मिली.कभी अपने लिए फुलपैंट भी नहीं सिलवाया.पाजामा और शर्ट ही उनकी पोशाक बन गई.शादी भी नहीं कर पाए. सभी घरों में उनकी बहुत इज्जत थी.इसी तरह दिन कट रहे थे.समय के साथ साथ भाई बहन बड़े हुए.बहनों की शादियाँ हुईं.भाई अच्छी-अच्छी नोकरियों में चले गए.माँ और मास्साब साथ रहने लगे.माँ की सेवा वे तन मन से करते थे.
भाई ने नया मकान बनवाया तो मास्साब बहुत खुश हुए.भाई ने गृह प्रवेश में बुलाया पर साथ ही एक शर्त लगा दी कि पाजामे की जगह फुलपैंट पहननी होगी.यह बात मास्साब को अन्दर तक दुखी कर गई.उन्होंने भाई के यहाँ जाने का विचार त्याग दिया.इस कहानी में यह निर्णय आप पर है कि मास्साब और उनके भाई में कौन सही थे|

ऋता शेखर मधु

गुरुवार, 24 मई 2012

जंग जारी है...




जंग जारी है

दिल कहता है
आकाश विस्तृत है
तुम्हारे पास पंख है
उड़ो , नाप लो गगन
दिमाग कहता है
दायरा सीमित रखो
दिल और दिमाग में
जंग जारी है...

जो सोचते हो
उतार दो पन्नों पर,
हू-ब-हू
बिना लाग लपेट के
कविता कहती
उसमें नदी झरने 
तितली और फूल भरो
चाँद सितारे भरो
शब्द और भाव में
जंग जारी है...

दुखी हो!
झलकने दो
पर याद रखो
तुम जो हँसोगे तो दुनिया हँसेगी
रोओगे तुम तो न रोएगी दुनिया
मायूसी और मुस्कुराहट में
जंग जारी है...

शब्द-शरों से बिंधो मत
बाणों का रुख पलट दो
जो झटकें उन्हे झटक दो
क्या कहा ?
यह सीखा नहीं
सोचते हो
सभ्य और असभ्य में
फिर अन्तर ही क्या
मौन और प्रत्युत्तर में
जंग जारी है...

ऋता शेखर मधु

सोमवार, 21 मई 2012

चिर प्रतीक्षित रह गया एकांत



मेरी थोड़ी सी पुरानी पोस्ट 'डेज़ से भरी टोकरी' पर
दिगम्बर नासवा जी ने टिप्पणी में लिखा था -
 'एकांत डे' भी होना चाहिए|
माहेश्वरी कनेरी जी ने लिखा-एक 'अपना डे' होना चाहिए|
उन्हीं टिप्पणियों का परिणाम है यह कविता...


          ''एकांत डे''


सरपट दौड़ रही ज़िन्दगी
लोगों की भागम-भाग मची है
आत्मचिन्तन करना था मुझको
एकांत मगर ढूँढे न मिला
आबादी वाले शहरों में
चिर प्रतीक्षित रह गया एकांत|

सुबह सवेरे सैर बहाने
कहीं पेड़ की छाँव तले
आत्ममंथन करना था मुझको
आपाधापी मची यहाँ भी
मैदान ज़ैविक उद्यान में
चिर प्रतीक्षित रह गया एकांत|

बाकी दिन बीते दफ़्तर में
दबे काम की बोझ तले
आत्मविश्‌लेषण करना था मुझको
फ़ाइल पठन ही हो पाया
साथ दिवस अवसान के
चिर प्रतीक्षित रह गया एकांत|

सोचा मंदिर की सीढ़ियों पर
कुछ वक्त शांत बिता लूँगा
आत्मविमोचन कर पाउँगा
कामना की लम्बी कतार में
पुजारी-भक्तों की भीड़ में
चिर प्रतीक्षित रह गया एकांत|

अब तो वापस अपने घर में
शांत बैठ अपने कमरे में
आत्मविचार लिख पाऊँगा
टेलीविज़न के शोर में
माँगों की लम्बी फ़ेहरिस्त में
लेखनी मेरी खो गई
चिर प्रतीक्षित रह गया एकांत|


इन शोर-शराबों से दूर -दूर
काश कि ऐसा दिन भी होता
रहता सब कुछ शांत-एकांत
सिर्फ हम होते और होती
सिर्फ अपनी ही सोच
कोई 'एकांत डे' या 'अपना डे'|
ऋता शेखरमधु

शुक्रवार, 18 मई 2012

चिराग तले अँधरा



आज विद्यालय में बहुत चहल पहल थी.ग्यारहवीं कक्षा का आज से क्लास शुरू होना था.विद्यालय में बहुत सारे दूसरे स्कूलों से नए नए बच्चे आ रहे थे.स्कूल के अनुशासन से छूटे हुए बच्चों के लिए थोड़ी थोड़ी आजादी का दिन था.लड़कों के लिए वही साधारण ड्रेस था-फैंट शर्ट का किन्तु लड़कियों ने थोड़ी सीमा लांघी थी|दुपट्टे वाली ड्रेस  का स्थान जीन्स और छोटे छोटे टॉप ने ले रखा था|
आदर्श बाबू  उस विद्यालय के वरिष्ठ शिक्षक थे.वे दूर से ही सभी बच्चों को देख रहे थे और परखने की कोशिश कर रहे थे.कुछ लड़कियों के लिबास उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रहे थे.उस विद्यालय ने ड्रेस कोड नहीं लगाया था इसलिए बच्चों को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की छूट थी.दूसरे दिन नोटिस बोर्ड पर एक नोटिस लगा था जिसमें लड़कियों के लिए सलवार कुर्ता और दुपट्टा पहनना अनिवार्य रखा गया था.कुछ लड़कियों ने इस नियम का पालन किया किन्तु कुछ विरोधी प्रकृति की लड़कियों ने बात नहीं मानी और छोटे टॉप में ही आईं.इसके लिए आदर्श बाबू ने शिक्षिकाओं को कहा कि वे उन लड़कियों को समझाएँ.फिर सब कुछ सही हो गया.
एक दिन एक लड़की स्कूल में आई.कहीं से भी उस लड़की के कपड़े शालीन नहीं कहे जा सकते थे.उसे अपने पापा से कुछ काम था इसलिए वह प्रिंसिपल की अनुमति पर आफिस में ही बैठ कर इन्तेजार करने लगी.कुछ देर में अन्य शिक्षक शिक्षिकाएँ भी अपने अपने क्लास से छुट्टी पाकर ऑफिस में आ गए.उस लड़की के कपडों को लेकर कानाफूसी हो ही रही थी तभी आदर्श बाबू आते दिखे.सभी इस बात के लिए तैयार हो गए कि उस लड़की की खैरियत नहीं है.किन्तु उस लड़की ने आदर्श बाबू को पापा कहकर सम्बोधित किया.सबकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं.इसे आदर्श बाबू ने भी समझा. सबके मन में एक ही सवाल था-पूरे विद्यालय को शालीन कपड़े पहनने का पाठ पढ़ाने वाले आदर्श बाबू अपनी ही बेटी को क्यों नहीं सिखा सके?

ऋता शेखर मधु

मंगलवार, 15 मई 2012

'डेज़' से भरी टोकरी




सुबह सुबह
अलसाई सी आवाज़
मम्मा, आज कौन सा डे है
आज सन्डे है,अभी सो जाओ
वो वाला डे नहीं
स्पेशल वाला डे
ओ,अभी मालूम नहीं
सर्च करके बताती हूँ


डे डे डे
हर दिन मनता
कोई न कोई 'डे'
डे मनाने के पीछे
मानसिकता होती है
उसे बढ़ावा देने की
या उससे निजात पाने की
अर्थात् हर ''डे''
उनके नाम
जो आते हैं
''निरीह' की श्रेणी में

'विमेन्स डे'
महिला मतलब निरीह
'डाटर्स डे'
बेटियाँ मतलब निरीह
'मदर्स डे'
यह भी महिला
सम्माननीय
'चिल्डरेन्स डे'
बच्चों को 
संरक्षण की आवश्यकता
'एनवायरोन्मेंट डे'
पर्यावरण भी
इंसानो के कारनामों से
बन गया निरीह
आजकल हँसने की गुंजाइश नहीं
निरीह हँसी के लिए
''लाफ्टर्स डे''
प्यार जताने का समय नहीं
'वैलेन्टाइन्स डे' है ना!
बच्चों को बचाना है
खतरनाक श्रम से
'चाइल्ड लेबर डे'
एक दिन की बैठक
फिर बच्चे वहीं के वहीं
चौकलेट डे
स्लैप डे
हग डे
रोज़ डे
टेड्डी डे
फ्रेंडशिप डे
मतलब डे ही डे

पुरुष होते बलवान
इसलिए है नहीं
कोई भी डे
उनके नाम
किन्तु जब बनते
पति और पिता
वे भी होते निरीह
अर्थात्
'हस्बेन्ड्स डे'
'फादर्स डे'
:):):)

ऋता शेखर 'मधु'

रविवार, 13 मई 2012

थाम लिया जब सूर्य, हँसा था खूब सवेरा


''माँ'' - रोला छंद में

माँ, जब छूटी आस, सामने तुझको पाया
आँचल सर पे डाल,मुझे दी शीतल छाया
आई घनेरी रात, बनी  तू सम्बल  मेरा
थाम लिया जब सूर्य, हँसा था खूब सवेरा|

सुमधुर तेरा हास, सरल थीं तेरी बातें
सोती तेरी गोद,  चैन से कटती रातें
पाकर तुझसे धीर, हिमालय मैं बन जाती
काश कि तुझसे सीख,हलाहल मैं पी पाती|

माँ, आती तू याद, जाग मैं लोरी गाती
छूए मंद बयार, लगे तू ही  सहलाती
पाया जो संस्कार, वही डाला झोली में
बस इतनी सी चाह,टपके प्यार बोली में|

ऋता शेखर 'मधु'

''माँ'' - हाइकु में


माँ, तेरी सीख,
मेरी मुट्ठी में बंद,
खोने न देती|


तपती धूप,
हाथ थे पाँव तले,
आँचल- छाया|


सुख-दुख में,
जब जी घबराया,
तुम्हें ही पाया|


ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 11 मई 2012

माता तुम निर्माता हो-मातृ दिवस विशेष





माता तुम निर्माता हो
राष्ट्र की भाग्य विधाता हो
कई भीषण पलों से लड़ी हो तुम
फिर क्यूँ मौन खड़ी हो तुम
आगे बढ़ सँभाल लो
पतन गर्त में जाते नौनिहालों को
माना वे बच्चे नहीं रहे
पर मोहताज हैं मार्गदर्शन को
अपनी चुप्पी तोड़ो तुम माता
तुम्हीं हो संस्कारों की दाता|

नई हवा है, नई लहर है
नए जमाने के कई कहर हैं
तुम्हें बनना ही होगा प्रहरी
बात है यह थोड़ी सी गहरी
अपमानो की करो न परवा
ममता का आँचल न समेटो
भले ही हठी हैं वे
पर ममता की छाँव
अभी भी उन्हें रिझाती है
लू के थपेड़े खाते हैं
वह छाँव उन्हें तब भाती है

मातृ-गर्भ है बड़ी पाठशाला
अष्टावक्र को ज्ञानी बना डाला
भक्त प्रह्लाद ने भक्ति सीखी
हिरण्यकशिपु को लगी यह तीखी
अभिमन्यु ने सीखा चक्रव्यूह का राज
शिवाजी की माता थीं ज्ञानी
पुत्र के आगे वीरता बखानी
नौनिहाल ने इतिहास रच दिया
कण-कण माँ का ऋणी हो गया

माता, अपने अदम्य साहस का
अपनी पर्वतीय धीरता का
अपने आकाशीय विस्तार का
परिचय तो दो
राष्ट्र का नव निर्माण करो
आगे बढ़ो, आगे बढ़ो|

ऋता शेखर मधु

बुधवार, 9 मई 2012

रश्मि प्रभा -- हिन्दी साहित्य जगत में सशक्त हस्ताक्षर

rashmi prabha's profile photo
रश्मि प्रभा
Buy Mahabhinishkraman Se Nirvan Tak: Book
पुस्तक का नामः महाभिनिष्क्रमण से निर्वाण तक
विधाः कविता
कवयित्री- रश्मि प्रभा
पृष्ठः 96
मूल्यः रु 150
प्रकाशकः हिंद युग्म, नई दिल्ली

रश्मि प्रभा का नाम इंटरनेट की दुनिया के लेखकों-पाठकों के लिए नया नहीं है। रश्मि उन बहुत थोड़े लोगों में से हैं, जिन्होंने इस आभासी दुनिया का बहुत रचनात्मक इस्तेमाल किया है। ये थोड़े लोग ही किसी माध्यम विशेष की प्रासंगिकता को चिन्हित करते हैं। हर कवि लिखते-लिखते एक समय अपनी एक खास शैली विकसित कर लेता है। प्रस्तुत संग्रह में रश्मि अपने पूर्णतया मौलिक स्वर एवं शैली के साथ मौजूद हैं। इनकी कविताओं का झुकाव कुछ हद तक आध्यात्मिक है और इस संग्रह की लगभग हर कविता में यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है।
सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण की कहानी का मुख्य पात्र यधोधरा है। रश्मि ने 'सिद्धार्थ ही होता' कविता के माध्यम से किसी सिद्धार्थ के बुद्ध होने की प्रक्रिया में उसकी यशोधरा की भूमिका को रेखांकित किया है। रश्मि की यह नवीन दृष्टि ही इनके लेखन को नई ऊँचाइयाँ प्रदान करती है। असल में रश्मि के काव्य-साहित्य की एक बहुत खास बात यह भी है कि इसमें पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्र नये अर्थों के निकस पर कसे जाते हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस कारण ही रश्मि की कविताएँ प्राचीन मान्यताओं, परंपराओं एवं प्रवृत्तियों पर नये तरह से विमर्श करने का सामर्थ्य रखती हैं।
रश्मि अपनी कुछ कविताओं में पुरुषवादी प्रवृत्तियों से मध्यमवर्गीय स्त्री की भाँति सवाल करती नजर आती हैं। 'महिला दिवस' के नाम पर पुरुषवादी मानसिकता द्वारा किए जाने वाले छल को उजागर करती हैं। 'पुरुष और स्त्री' कविता में एक दार्शनिक की तरह इन दो मानसिकताओं का फर्क समझाती हैं। कुल मिलाकर रश्मि की कविताओं में बहुत सारे विमर्श हैं, बहुत से सवाल हैं, कुछ समाधान भी हैं और इनसे भी अधिक लगातार असंवेदनशील होते जा रहे मनुष्य को सचेत करने के प्रयास हैं। मैं समझता हूँ कि पाठक इन्हें हृदय से स्वीकारेंगे।
शैलेश भारतवासी
संपादक, हिंद युग्म

सोमवार, 7 मई 2012

कहानी-चिता की आग




शाम गहराने लगी थी.रजनी अपने कमरे में खड़ी खिड़की से दूर आकाश ताक रही थी.परिंदे अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे.उसने कमरे की बत्ती भी नहीं जलाई थी.शायद जलाना नहीं चाहती थी.मन की आँखें अँधेरे में ज्यादा स्पष्ट देख पाती हैं.जब से उसने पूर्णिमा से बातें की थी उसका मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था.पूर्णिमा उसकी स्कूल की सहेली थी.दोनों के घर अगल बगल थे इसलिए एक दूसरे के घरों में भी आना जाना था.समय पर उनकी शादियाँ हुईं.विवाह के बाद कुछ दिनों तक चिट्ठियों से उनका सम्पर्क बना रहा.फिर वे अपनी गृहस्थियों में उलझ गईं और धीरे धीरे चिट्ठियों के आदान प्रदान कम होते गए.पिछले पंद्रह सालों से कोई सम्पर्क स्थापित नहीं हो पा रहा था क्योंकि उनके ठिकाने बदल चुके थे.

बच्चे बड़े हो चुके थे.रजनी की व्यस्तता कम हो गई थी.खाली समय का सदुपयोग करने के लिए उसने कंप्यूटर का सहारा लिया .नेट पर आते ही उसने फेसबुक पर सबसे पहले अपनी सहेली पूर्णिमा को खोजा.उसकी कोशिश कामयाब हुई और इस आधुनिक तकनीक के जरिए दोनों बिछुड़ी हुई सहेलियाँ मिलीं.एक दूसरे के मोबाइल नम्बर लिए गए.आज दोनों सहेलियों की जमकर बातें हुई थीं...अपने घर परिवार और बच्चों के बारे में ढेर सारी बातें.बातों के दौरान रजनी ने पूर्णिमा से उसकी बूआ के बारे में पूछा.पूर्णिमा एकदम से चुप हो गई.रजनी को यूँ लगा कि यह बात पूछकर उसने कोई बहुत बड़ी गल्ती कर दी हो.चूँकि वह पूर्णिमा के घर जाती थी और पूरे परिवार से उसे बहुत स्नेह मिलता था इसलिए उसने पूछा था.सबसे ज्यादा वह पूर्णिमा की बूआ को पसंद करती थी.बहुत ही हँसमुख और प्यार करने वाली थीं वह.

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने जो कुछ भी बताया वह अकल्पनीय था.बूआ की शादी रजनी के सामने ही हो चुकी थी.साँवली पर तीखे नैन नक्श वाली बूआ दुल्हन के रूप में बहुत आकर्षक लग रही थीं.हँसमुख चेहरे की शोभा देखते ही बन रही थी.बारात दरवाजे लगी तो दूल्हे का रूप भी खूब निखर रहा था.सब बूआ की किस्मत सराहने लगे.सब कुछ हँसी-खुशी सम्पन्न हो गया.डोली चढ़कर दुल्हन ससुराल चली गई अपना नया घर बसाने.ससुराल में नई दुल्हन का खूब स्वागत हुआ.सारे रस्मो-रिवाज़ निभाने के बाद बारी आई फूफाजी के दोस्तों से मिलने की.पूरा कमरा दोस्तों से भरा था.इतने सारे दोस्त...बूआ के तो हाथ पैर फूलने लगे.मित्तभाषी बूआ के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी.उन्होंने एक बार नज़र उठाकर देखा,मित्रमंडली में महिला मित्र भी शामिल थीं.एक एक करके सबसे परिचय हुआ. देर रात तक हँसी ठहाकों का दौर चलता रहा.बूआ अपने आप में सिमटी रहीं.यह सीधी सादी भारतीय लड़की शायद फूफा जी को बहुत पसंद नहीं आई थी.धीरे धीरे सब विदा हो चुके थे.अब कमरे में सिर्फ एक मित्र बची थी.फूफाजी ने उससे बूआ का खास परिचय करवाया.उस लड़की मिताली ने फूफाजी को बाहर जाने का आदेश दिया.फिर वह हँस हँसकर बातें करने लगी.अपनी बातों से उसने बूआ का दिल जीत लिया था.उस वक्त निष्कपट बूआ को कहीं से भी यह आभास नहीं हुआ कि वह आसतीन का साँप बनने की तैयारी में थी.इस तरह बूआ को अपने विश्वास में लेकर आराम से घर में आने जाने लगी.घर की शांति भंग न हो इसलिए घरवाले चुप थे.घर में उसकी पसंद मायने रखती थी.सभी शौपिंग में वह बूआ के साथ होती थी.
जब पूर्णिमा यह सब बता रही थी तब रजनी के मन में एक स्वभाविक प्रश्न आया.उसने पूछा, तब दादी और तेरी माँ क्या कर रही थीं.पूर्णिमा ने बताया कि दादी और माँ ने बूआ को समझाने की कोशिश की थी लेकिन पता नहीं किस  कारण से वह चुप थीं.शायद असुरक्षा की भावना थी.या हो सकता है फूफाजी ने कुछ कहकर धमका दिया हो जो वह कहना नहीं चाहती थीं. उन्हे लगता था कि जब फूफाजी उसके साथ खुश हैं तो वह क्यों टाँग अड़ाए.उनकी हरकतें कहीं से भी अशोभनीय नहीं थीं.इसी तरह दिन बीत बीत रहे थे.समय के साथ साथ उनके माँ बनने के बारे में कानाफूसी शुरू हो गई थी.चार साल बीतने पर भी उनकी गोद खाली थी.मायके वालों ने डाक्टर से दिखाना शुरू किया.जाँच मे हर कुछ सही पाया गया.फिर शुरु हुआ तानों और अत्याचारों का सिलसिला.बूआ सब कुछ मौन रहकर सहने लगी.उन्हें मालूम था कि यदि सच बता दिया तो भूचाल आ जाएगा.फूफाजी ने उन्हें धोखे से वह दवा खिला दिया था जिससे वह सात आठ सालों तक वह माँ नहीं बन सकती थीं.और इस साजिश में वह मिताली शामिल थी...यह बात उन्हें बाद में पता चली.मायके वालों को वह दुखी नहीं करना चाहती थीं...वहाँ पर फूफा जी ने अपनी साफ सुथरी छवि बना के रखा थी.

यह सिर्फ एक नमूना है...जितनी बातें पूर्णिमा ने बताईं वह बातें लिखी जाएँ तो पढ़ने वालों के रोंगटे खड़े हो जाएँ,जिस पर बीती उसकी स्थिति तो सोच से भी परे है.

बूआ ने मुँह से कुछ नहीं कहा पर उनका शरीर दिन प्रतिदिन दुर्बल होता गया और एक दिन वे इस दुनिया के कड़वे अनुभवों को समेट कर विदा हो गईं.उस दिन हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी...श्मशान घाट पर फूफाजी को ही मुखाग्नि देनी थी.सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं.अचानक बगल की जलती चिता से एक चिंगारी उड़ी और बूआ की चिता की ओर बढ़ी. चिता धू धू कर जल उठी...फूफा जी देखते ही रह गए.
''इस तरह से बूआ ने मरने के बाद मुखाग्नि को अस्वीकार कर अपना मौन बदला ले लिया था...''यह कहते कहते पूर्णिमा इतनी जोर से रो उठी कि रजनी कुछ नहीं कह पाई.अभी भी वही बात और वही रुलाई उसके कानों में गूंज रही थी.

ऋता शेखर 'मधु'

शनिवार, 5 मई 2012

जो निगाहें झुकाए वो हया तो मिले




इक जया तो मिले
इक दया तो मिले

आशियाँ जो बनाए 
वो बया तो मिले

जो निगाहें झुकाए
वो हया तो मिले

कहकहे भी लगाए
वो समाँ तो मिले

वो कलम को चलाए
सरस्वती तो मिले

जो टके भी कमाए
वो रमा तो मिले

जो भजन भी सुनाए
वो सुरीली मिले

घर-चमन में सजे
वो सजीली मिले

पाक में हो निपुण
अन्नपूर्णा मिले

लोग देखें अपलक
उर्वशी भी मिले

जो स्कुटी ले उड़े
वो बसंती मिले

पैंजनी भी बजाए
वो नुपुर तो मिले


प्यार पलते जहाँ
वो जिया तो मिले

लिपटी जो रहे
वो लता तो मिले

ढूँढती हर गली
वो पता तो मिले

हमकदम जो बने
वो वधू तो मिले

सर्व गुण संपन्न
वो कहाँ से मिले:)


ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 1 मई 2012

हे मर्यादापुरुषोत्तम...





हे श्रीराम
हे मर्यादापुरुषोत्तम
तुम तो रोम रोम में बसे हो
पर कभी कभी
तुम पर बहुत गुस्सा आता है
बेतुकी लगी न यह बात!
क्योंकि तुम प्रभु हो
प्रातः स्मरणीय हो
आराध्य देव हो
देव से गुस्सा कैसा!!
शिकायत कैसी!!!
पर गुस्सा तब आता है
जब सोचती हूँ
सीता के बारे में|

आदर्श पुत्र बनकर के
तुमने वनवास स्वीकार किया

चौदह वर्ष के विकट काल में
तुम अकेले वन में न भटको
तुम्हे साथ देने की खातिर उसने
सब सुखों का त्याग किया था
हे राम,
आखिर क्यों उस अनुगामिनी का
तुमने यूँ परित्याग किया था?

अशोक वाटिका में बैठी बैठी वह
नजरें नीची कर अड़ी रही
तुम्हारा नाम ही जपती जपती
दिन- रात वह पड़ी रही थी
हे राम,
आखिर क्यों बेकसूर होकर भी वह 
अग्नि के बीच खड़ी हुई थी ??

तुम तो सीता को जीत लाए थे
सहगामिनी को फिर से पाकर
मन में खूब हरषाए थे
जानकी ने तुम्हारे शौर्य को
सदा ही नमस्कार किया था
हे राम,
किस मर्यादा की खातिर तुमने
फिर उसका तिरस्कार किया था ???

तुम्हारा कुलदीपक संजोए
जननी बनने को वह तत्पर थी
जब तुम्हारा साथ पाने का
उसको पूर्ण अधिकार था
हे राम,
किसे प्रसन्न करने की खातिर तुमने
उस ममतामयी का बहिष्कार किया था ????

नन्हे पुत्रों की किलकारी सुनने को
क्या कभी तुम्हारा मन नहीं ललचाया
लघु पादप को सींचने में
सीता ने बहुत सितम उठाया 
हे राम,
क्यूँ पिता बन कर भी तुमने
जिम्मेदारियों को नहीं निभाया ?????

हे राम,
तुम अन्तर्र्यामी थे
तुम्हें मालूम था
सीता के साथ अन्याय हुआ था
तुमने और सीता ने तो
सिर्फ मानव स्वभाव चित्रित किया था
सीता ने भारतीय नारी के अनुगामिनी स्वभाव को
और तुमने.................................???

ऋता शेखर मधु’