दुल्हन के वेश में सजी वह निढाल सी तकिए पर गिर पड़ी और सुबक सुबक कर रोने लगी| आँसुओं से तरबतर चादर और तकिया , हिचकियों से रूँधा गला और हताश सी उसकी आँखें निःशब्द थीं| कुछ देर तक वह इसी अवस्था में रही फिर धीरे धीरे स्वयं को संयत किया| थके थके कदमों से आँगन में गई जहाँ उसके पिता की मृत देह पड़ी थी| एक सुकून था उनके चेहरे पर जैसे वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए हों| स्नेहा बगल में बैठ गई और एकटक उन्हें निहारने लगी| एक पिता के लिए उसकी बेटी की शादी कितनी महत्वपूर्ण होती है यह तो हर लड़की एवं पिता का दिल ही जानता है|
आज सुबह ही तो स्नेहा के पिता स्नेहा की शादी तय करके लौट रहे थे| खुशी से उनका चेहरा चमक रहा था| वे यह समाचार घर में खुद ही सुनाना चाहते थे इसलिए घर पर फोन भी नहीं किया था| चार बहनों में सबसे बड़ी थी स्नेहा और बिटिया को दुल्हन के रूप में देखने की तमन्ना उनमें उत्साह पैदा कर रही थी | किन्तु विधि ने कुछ और ही रचा था इस मौके के लिए| ट्रेन से उतरते हुए अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे प्लेटफॉर्म पर ही गिर पड़े| जब तक लोगों का ध्यान उधर गया और उचित चिकित्सा मिलती तबतक बहुत देर हो चुकी थी| अस्पताल में वे कौमा की अवस्था में पहुँचे | स्थिति में सुधार आते ही डॉक्टर ने उन्हे घर जाने की इजाजत दे दी| सभी बहने सामने आईं| बीमार पिता के चेहरे पर स्नेहा को देखते ही मुस्कान खिल गई| कुछ कहना ही चाह रहे थे कि कमजोरी से आँखें झपक गईं| सबने उन्हें आराम करने दिया|
अचानक उनकी आँख खुली और वे जोर जोर से बोलने लगे---स्नेहाssss स्नेहा ,तुम तैयार नहीं हुई अभी तक| बाहर दरवाजे पर बारात आ चुकी है और तुम घर के कपड़ों में ही बैठी हो| जाओ जल्दी तैयार हो जाओ| मेरी बेटी आज दुल्हन बनेगी...मैं बहुत खुश हूँ...जाओ बेटी , जल्दी से तैयार हो जाओ|
स्नेहा की माँ और सभी लड़कियाँ एक दूसरे का मुँह देखने लगीं| फिर माँ ने इशारा किया कि वह तैयार हो जाए वरना भावातिरेक में वे पुनः अचेत हो सकते थे|
स्नेहा चुपचाप उठी और कमरे में गई| माँ के बक्से से लाल बनारसी साड़ी निकालकर पहन लिया उसने| हाथों में चमकीली चुड़ियाँ पहन लीं| नथ और टीका भी पहन लिया| लाल चुनर सर पर डाल वह धीरे धीरे आकर पिता के सामने खड़ी हो गई| बेटी को दुल्हन के रूप में देख एक संतुष्टि उभरी उनके मुख पर और उन्होंने बेटी को पास बुलाया| उसके दोनो हाथों को थामकर अपलक देखते रहे|
'ससुराल में ठीक से रहना बेटी'|
अब स्नेहा से बरदाश्त नहीं हुआ | देर से छलक रही आँखों से आँसुओं की धार बह चली| धीरे धीरे उसे महसूस हुआ कि पिता के हाथों की पकड़ ढीली होती जा रही है| हड़बड़ा कर सचेत हुई स्नेहा तबतक पिता के प्राण पखेरु उडं चुके थे मगर संतोष झलक रहा था चेहरे की हर लकीर में|
....................................ऋता शेखर 'मधु'