आज मैं श्रीराम कथा की चौथी कविता लेकर प्रस्तुत हूँ|आपकी छोटी से छोटी प्रतिक्रिया भी मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हे|
श्रीराम की बाललीला
जगत के स्वामी अन्तर्यामी अनुग्रहदानी रघुनाथ|
अवतार लिए रघुकुल में हुलस पड़े पिता और मात||
कौशल्या दशरथ कर जोड़े बोले, अहोभाग्य हमारे|
अपने वचन की खातिर प्रभु, हमारे घर पधारे||
जनक जननी जन के स्नेहवश,बाललीला करते थे श्रीराम|
देख-देख पुलकित होते अवध-जन, छोड़ के सब काम||
वात्सल्य प्रेम में आनन्दित होती थीं कौशल्या माता|
कभी नहीं सोची थीं, यूँ गोद में खेलेगे जग-विधाता||
कभी पालने में कभी गोद में खिलातीं|
कभी नजर भर-भर लला को निहारतीं||
दिवस रात्रि पहर का, रहा न भान और ज्ञान|
बालक राम की लीला का ही, करती रहतीं गान||
एक दिवस माता ने करवाया, राम को स्नान|
लिटा पालने में रसोई गई, बनाना था पकवान||
इष्ट-देव को भोग लगा किया हृदय से ध्यान|
लौटीं वापस पाकगृह में रह गई हैरान||
बैठ रसोई में आराम से, खाते थे श्रीराम|
दौड़ पालने में देखा, सो रहे थे राम||
पुनः रसोईघर में देखा, विराजमान थे राम|
हृदय काँप उठा उनका,रहा न धैर्य का भान|
पहेली समझ न पाई, कैसे दोनों जगह हैं राम||
अपना मतिभ्रम मान के,कौशल्या हो गई आकुल|
मुस्कुरा दिए श्रीराम, देखा जो माता को व्याकुल||
श्रीराम ने दिखलाया, अनूठा विराट रूप अपना|
आश्चर्यचकित देखें कौशल्या, सत्य है या सपना||
प्रत्येक रोम में थे शोभित, कोटि-कोटि ब्रह्मांड|
सूर्य चन्द्र पर्वत समुद्र नदी वन पृथ्वी शंकर ब्रह्मा||
थे वहाँ काल कर्म, गुण ज्ञान स्वभाव|
कल्पना से भी परे,अनेक प्रकार के भाव||
भयभीत कर जोड़े खड़ी थीं, बलवती माया|
माया से मुक्त कराने वाली, भक्ति की काया||
तन मन से पुलकित हो, माता ने शीश नवाया|
ऐसी लीला से आप मुझे,फिर कभी न सताना|
हाथ जोड़ विनती करूँ, बाल-रूप में रहना||
विस्मित माता को रामलला ने बार-बार समझाया|
जगतपिता श्रीराम ने फिर से, बाल रूप बनाया||
समय के साथ बड़े हुए, अपार लीला करते सब भाई
चूड़ाकर्म संस्कार में, ब्राह्मणों ने ढेरों दक्षिणा पाई||
ठुमक-ठुमक चलने लगे, माता से पकड़े नहीं जाते|
धूल-धुसरित हो वे जब, घर को वापस आते||
दशरथ हँस-हँस उनको, गोद में बिठाते|
बड़े स्नेह से नन्हे को, दही भात खिलाते||
निगाह चूके, किलकारी मार श्रीराम भाग जाते|
सरस्वती शेष महेश, मनभावन बालचरित गाते||
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ऋता शेखर ‘मधु’