शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

सखी री..........

सखी री..........

भ्रमर ने गीत जब गाया
पपीहा प्रीत ले आया
शिखी के भी कदम थिरके
सखी री, फाग अब आया |
बजी जो धुन मनोहर सी
थिरक जाए यमुन जल भी
विकल हो गा रही राधा
सखी री मोहना आया|
कली चटखी गुलाबों की
जगे अरमान ख़्वाबों के
उड़ी खुशबू फ़िजाओं में
सखी ऋतुराज है आया|
गिरे थे शूल राहों में
खिले थे फूल बाहों में
ख़ता उसकी न तेरी थी
सखी बिखराव क्यूँ आया|
झुके से थे नयन उसके
रुके से थे कदम उसके
किया उसने इबादत भी
सखी री काम ना आया|
मिला जो वह बहारों में
लगा अपना हजारों में
जहाँ देखे वहाँ वो था
सखी ढूँढे नजारों में|
....ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

परिवर्तन


अपनी ही तपन
वह झेल न पाता
साँझ ढले 
सागर की गोद में 
धीरे से समाता
नहा धो कर 
नई ताजगी के साथ 
वह चाँद बन निकल आता
चाँदनी का दामन थाम
शुभ्र उज्जवल प्रभास से
जग को 
शीतल मुस्कान दे जाता
हाँ, साँझ ढलते ही 
वह प्रेमी  
प्रेमिका का 
उपमान बन
बच्चों का मामा बन जाता
तब वह रौद्र सूरज 
अपने दिल की मासूमियत 
माँ की लोरी में डाल
कितना भोला कितना प्यारा
कितना निश्छल कितना न्यारा
चन्द्रकिरन बन जाता|
हाँ, हमेशा कोई जल नहीं सकता
प्रचंड रूप में पल नहीं सकता
सूरज को चाँद बनना ही है
यही परिवर्तन है
यही सत्य है
यही शाश्वत है

...ऋता शेखर ‘मधु’

शनिवार, 22 नवंबर 2014

क़ातिल हूँ मैं


क़ातिल हूँ मैं
हाँ, क़त्ल करती हूँ
हर दिन क़त्ल करती हूँ
कुछ मासूम नन्हें ख्वाब का
कभी रुई के फाहे जैसे
सफ़ेद निश्छल स्वप्न का
मिटा देती हूँ
अनुभव के कठोर धरातल
पर उपज आए
आशाओ के इन्द्रधनुष को
हाँ दे देती हूँ विष
छोटी छोटी चाहतो को
चला देती हूँ खंजर
बड़े अरमानों पर
क़ि वजह क्या बताऊँ
कैसे बताऊँ
कि जन्मदाता के हाथों में
पंख कतरने वाली कैँची थी
कि हमकदम ने
हर कदम पर निगाह रखी
कि जिसे जनम दिया
अशक्त अरमानों की दवा
उसके हाथोँ में है
किसे कठघड़े में खड़ा करूँ
या कहाँ आत्मसमर्पण करूँ
ओ वामाओं', तुम भी सोचना
कहीँ तुम भी क़ातिल तो नहीं
सपनों की मज़ारों पर खिलती बहारेँ
हम भी ख़ुशी से उनको निहारें
एक दीप हर रोज़ रखते है जलाकर
घृत न सही डाल देते हैं अश्क
और जलता है दीप अनवरत...
रौशनी की खातिर मिसाल बनकर
*ऋता शेखर 'मधु'*

सोमवार, 10 नवंबर 2014

गुनगुनी सी धूप आई


गुनगुनी सी धूप आई
शरद बैठा खाट लेकर
मूँगफलियों को चटकता
मिर्च नींबू चाट लेकर

फुनगियों से हैं उतरती
हौले झूमती रश्मियाँ
फुदक रहीं डाल डाल पर
चपल चंचला गिलहरियाँ

चौपालों पर सजी बजीं
तरकारियाँ, हाट लेकर
गुनगुनाती हैं गोरियाँ
गेहुँएँ औ' पाट लेकर

छिल गईं फलियाँ मटर की
चढ़ी चुल्हे पर घुघनियाँ
क्यूँ होरियों से चल रहीं
ये पूस की बलजोरियाँ

बंधने लगीं लटाइयाँ
मँझे धागे काट लेकर
समेट रहीं परछाइयाँ
आगमन की बाट लेकर

गुनगुनी सी धूप आई
शरद बैठा खाट लेकर
*ऋता शेखर 'मधु'*
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