मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

आया कहाँ से, जाना कहाँ है...



आया कहाँ से, जाना कहाँ है...

सुदूर क्षितिज की छाँव में
नभ का पंथी श्रांत क्लांत
अस्ताचल की गोद में
चुपचाप नींद भर सोता है

कलकल नदिया थम चुकी
नीरव संध्या की बेला में
हे ! मनुज, तू नौका पर
किस चिंतन में खोता है

आया कहाँ से, जाना कहाँ है
डूबेगा मझधार में या
किनारे भी मिल जाएँगे
सोच सोच क्यूँ रोता है

जीवन के इस सांध्य में
पंछी नीड़ में दुबक गए
कहीं कोई न दिखे सहारा
क्यूँ शून्य में नयन भिगोता है

बस उसका ही ध्यान कर
मन को न मंझान कर
जो लाया है जगत में
पतवार वही तो खेता है

हम मात्र कठपुतली हैं
हर धागे की पेंच पर
वही नचाता जाता है
हम नाचते जाते हैं|
...ऋता


15 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति-
    आभार आदरणीया -
    नवरात्रि की शुभकामनायें-

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  2. जब आयें हैं तो पार भी लग जायेंगे.....
    चिता क्यूँ???
    बहुत सुन्दर...

    सादर
    अनु

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  3. आपकी लिखी रचना की ये चन्द पंक्तियाँ.........

    आया कहाँ से, जाना कहाँ है...
    सुदूर क्षितिज की छाँव में
    नभ का पंथी श्रांत क्लांत
    अस्ताचल की गोद में
    चुपचाप नींद भर सोता है

    बुधवार 09/10/2013 को
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    को आलोकित करेगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!

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  4. हम मात्र कठपुतली हैं
    हर धागे की पेंच पर
    वही नचाता जाता है
    हम नाचते जाते हैं|.......................यही नियति हैं |

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  5. बस उसका ही ध्यान कर
    मन को न मंझान कर
    जो लाया है जगत में
    पतवार वही तो खेता है ..

    बस यही समझ आ जाए तो जीवन के सब दर्द, दुख ओर अहंकार मिट जाएंगे ...

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  6. बस उसका ही ध्यान कर
    मन को न मंझान कर
    जो लाया है जगत में
    पतवार वही तो खेता है
    बहुत सुंदर .

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  7. जीवन में सही राह चले तो वही जीवन है ...
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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  8. मनोहारी पंक्तियाँ हैं . आभार .

    वो मानव भी क्या मानव है
    'जय' भाग्य के लिए रोता जो
    मानव वो साहस के हल से
    कर्मक्षेत्र में ज्ञान बीज बोता जो

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  9. वाह एक गहन दर्शन को समेटे ये लाजवाब पोस्ट |

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  10. अपना कर्म करो बाकी ईश्वर पर छोड़ दो ... बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  11. चित्रों से खेलने का आपका यह शौक मुझे अच्छा लगता है क्योंकि मैं भी चित्रों में अभिवक्ति ढूँढने का प्रयास करता रहता हूँ।

    भोर हुई
    नाविक चले जैसे उड़ें पंछी
    दाने की आस।

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